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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
श्रमणपरम्परा का सामान्य शब्द था। बौद्धपरम्परा में आस्रव शब्द की व्याख्या यह है कि जो मदिरा (आसव) के समान ज्ञान का विपर्यय करे, वह आस्रव है। दूसरे, जिससे संसाररूपी दुःख का प्रसव होता है, वह आस्रव है।
जैनदर्शन में आसवको संसार (भव) एवं बन्धन का कारणमाना गयाहै। बौद्धदर्शन में आस्रव को भव का हेतु कहा गया है। दोनों दर्शन अर्हतों को क्षीणाम्रव कहते हैं। बौद्धविचारणा में आस्रव तीनभाने गए हैं- (1) काम, (2) भव और (3) अविद्या, लेकिन अभिधर्म में दृष्टि को भी आस्रव कहा गया है। अविद्या और मिथ्यात्व समानार्थी हैं ही। काम को कषाय के अर्थ में लिया जा सकता है और भव को पुनर्जन्म के अर्थ में। धम्मपद में प्रमाद को आस्रव का कारण कहा गया है। बुद्ध कहते हैं, जो कर्तव्य को छोड़ता है और अकर्त्तव्य को करता है, ऐसे मलयुक्त प्रमादियों के आस्रव बढ़ते हैं। इस प्रकार, जैनविचारणा के समान बौद्ध-विचारणा में भी प्रमाद आस्रव का कारण है।
बौद्ध और जैन-विचारणाओं में इस अर्थ में भी आसव के विचार के सम्बन्ध में मतैक्य है कि आस्रव अविद्या (मिथ्यात्व) के कारण होता है, लेकिन यह अविद्या या मिथ्यात्व भी अकारण नहीं, वरन् आम्रवप्रसूत है। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्षसे बीज की परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या (मिथ्यात्व) से आस्रव और आस्रव से अविद्या (मिथ्यात्व) की परम्परा परस्परसापेक्षरूपमें चलती रहती है। बुद्ध ने जहाँ अविद्या को आस्रव का कारण माना, वहाँ यह भी बताया कि आस्रवों के समुदय से अविद्या का समुदय होता है।" एकके अनुसार आस्रव चित्त-मल हैं, दूसरे के अनुसार वेआत्म-मल हैं, लेकिन इसआत्मवाद सम्बन्धी दार्शनिक-भेद के होते हुए भी दोनों का साधना-मार्ग आसव-क्षय के निमित्त ही है। दोनों की दृष्टि से आस्रवक्षय ही निर्वाण-प्राप्ति का प्रथम सोपान है। बुद्ध कहते हैं, भिक्षुओं! संस्कार, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, अविद्या आदि सभी अनित्य, संस्कृत और किसी कारण से उत्पन्न होने वाले हैं। भिक्षुओं ! इसे भी जान लेने और देख लेने से आम्रवों का क्षय होता
___ जैसे जैन-परम्परा में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गए हैं, वैसे ही बौद्ध-परम्परा में लोभ (राग), द्वेष और मोह को बन्धन (कर्मों की उत्पत्ति) का कारण माना गया है। जो मूर्ख लोभ, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर छोटा या बड़ा, जो भी कर्म करता है, उसे उसी को भोगना पड़ता है, न कि दूसरे का किया हुआ, इसलिए बुद्धिमान् भिक्षु को चाहिए कि लोभ, द्वेष और मोह का त्याग कर एवं विद्या का लाभ कर सारी दुर्गतियों से मुक्त हो।
इस प्रकार, जैन और बौद्ध-दोनों परम्पराओं में राग, द्वेष और मोह-यही तीन बन्धन (संसार-परिभ्रमण) के कारण सिद्ध होते हैं। जैन और बौद्ध-परम्पराओं में इस बन्धन
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