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________________ कर्म बन्थ के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया 395 (ग) राग- आसक्ति भी आत्म-चेतना को कुण्ठित करती है, इसलिए प्रमाद कही जाती है। (घ) विषय-सेवन- पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन। (ङ) निद्रा- अधिक निद्रा लेना। निद्रा समय का अनुपयोग है। 4. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार प्रमुख मनोदशाएँ, जो अपनी तीव्रता और मन्दता के आधार पर 16 प्रकार की होती हैं, कषाय कही जाती हैं। इन कषायों के जनक हास्यादि 9 प्रकार के मनोभाव उपकषाय हैं। कषाय और उपकषाय मिलकर पच्चीस भेद होते हैं। 5. योग-जैन-शब्दावली में योग का अर्थ क्रिया है, जो तीन प्रकार की हैं- (1) मानसिक-क्रिया (मनोयोग), (2) वाचिक-क्रिया (वचनयोग), (3) शारीरिक-क्रिया (काययोग)। ___ यदि हम बन्धन के प्रमुख कारणों को और संक्षेप में जानना चाहें, तो जैन-परम्परा में बन्धन के मूलभूत तीन कारणराग (आसक्ति), द्वेष और मोहमाने गए हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में राग और द्वेष-इन दोनों को कर्म-बीज कहा गया है और उन दोनों का कारण मोह बताया गया है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उनमें राग ही प्रमुख है। राग के कारण ही द्वेष होता है। जैन-कथानकों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का महावीर के प्रति प्रशस्त-राग भी उनके कैवल्य की उपलब्धि में बाधक रहा था। इस प्रकार, राग एवं मोह (अज्ञान) ही बन्धन के प्रमुख कारण हैं। आचार्य कुन्दकुन्दराग को प्रमुख कारण बताते हुए कहते हैं, आसक्तआत्मा ही कर्म-बन्ध करता है और अनासक्त मुक्त हो जाता है, यही जिन भगवान् का उपदेश है, इसलिए कर्मों में आसक्ति मत रखो, लेकिन यदिराग (आसक्ति) का कारण जानना चाहें, तो जैन-परम्परा के अनुसार मोह ही इसका कारण सिद्ध होता है, यद्यपि मोह और राग-द्वेष सापेक्ष रूप में एक-दूसरे के कारण बनते हैं। इस प्रकार, द्वेष का कारण राग और राग का कारण मोह है। मोह तथा राग (आसक्ति) परस्पर एक-दूसरे के कारण हैं, अत: राग, द्वेष और मोह-ये तीन ही जैन-परम्परा में बन्धन के मूल कारण हैं। इसमें से द्वेष को, जो राग (आसक्ति) जनित है, छोड़ देने पर रोष राग (आसक्ति) और मोह (अज्ञान)-ये दो कारण बचते हैं, जो अन्योन्याश्रित हैं। बौद्ध-दर्शन में बन्धन (दुःख) का कारण जैन-विचारणा की भाँति ही बौद्ध-विचारणा में भी बन्धन या दुःख का हेतु आस्रव माना गया है। उमसें भी आस्रव (आसव) शब्द का उपयोग लगभग समान अर्थ में ही हुआ है। यही कारण है कि श्री एस.सी. घोषाल आदि कुछ विचारकों ने यह मान लिया कि बौद्धों ने यह शब्द जैनों से लिया है। मेरी अपनी दृष्टि में यह शब्द तत्कालीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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