________________
कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
19. आज्ञापनिका - क्रिया- दूसरे को आज्ञा देकर कराई जाने वाली क्रिया या पापकर्म । 20. वैदारिणी - क्रिया- विदारण करने या फाड़ने से उत्पन्न होने वाली क्रिया । कुछ विचारकों के अनुसार दो व्यक्तियों या समुदायों में विभेद करा देना या स्वयं के स्वार्थ के लिए दो पक्षों (क्रेता-विक्रेता) को गलत सलाह देकर फूट डालना आदि ।
21. अनाभोग-क्रिया- अविवेकपूर्वक जीवन-व्यवहार का सम्पादन करना। 22. अनाकांक्षा- क्रिया- स्वहित एवं परहित का ध्यान नहीं रखकर क्रिया करना 23. प्रायोगिकी - क्रिया- मन से अशुभ विचार, वाणी से अशुभ सम्भाषण एवं शरीर से अशुभ कर्म करके मन, वाणी और शरीर शक्ति का अनुचित रूप में उपयोग
करना ।
393
24. सामुदायिक-क्रिया- समूह रूप में इकट्ठे होकर अशुभ या अनुचित क्रियाओं का करना; जैसे- सामूहिक वेश्या नृत्य करवाना। लोगों को ठगने के लिए सामूहिक रूप से कोई कम्पनी खोलना, अथवा किसी को मारने के लिए सामूहिक रूप में कोई षड्यंत्र करना आदि ।
मात्र शारीरिक-व्यापाररूप ईर्यापथिकक्रिया, जिसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है, को मिलाकर जैन- विचारणा में क्रिया के पच्चीस भेद तथा आस्रव के 39 भेद होते हैं। कुछ आचार्यों ने मन, वचन और काय - योग को मिलाकर आस्रव के 42 भेद भीमाने हैं । "
आस्रवरूप क्रियाओं का एक संक्षिप्त वर्गीकरण सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। संक्षेप में, वे क्रियाएँ निम्न प्रकार हैं 10 -
1. अर्थ- क्रिया- अपने किसी प्रयोजन (अर्थ) के लिए क्रिया करना; जैसे अपने लाभ के लिए दूसरे का अहित करना ।
2. अनर्थ - क्रिया- बिना किसी प्रयोजन के किया जाने वाला कर्म; जैसे व्यर्थ में किसी को सताना ।
3. हिंसा - क्रिया - अमुक व्यक्ति ने मुझे अथवा मेरे प्रियजनों को कष्ट दिया है, अथवा देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना ।
4. अकस्मात् - क्रिया - शीघ्रतावश अथवा अनजाने में होने वाला पाप- - कर्म; जैसे घास काटते-काटते जल्दी में अनाज के पौधे को काट देना ।
5. दृष्टिविपर्यास- क्रिया- मतिभ्रम से होने वाला पाप-व -कर्म; जैसे चोरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड देना, मारना आदि। जैसे दशरथ के द्वारा मृग के भ्रम में किया गया श्रवणकुमार का वध । 6. मृषा - क्रिया- झूठ बोलना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org