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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जाता है। इस प्रकार, तीनों आचारदर्शन इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि वासना एवं कषाय से रहित निष्काम कर्म अकर्म है और वासनारहित सकाम कर्म ही कर्म है, बन्धनकारक है।
उपर्युक्त विवेचनसे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कर्म-अकर्म-विवक्षा में कर्म का चैतसिक-पक्ष ही महत्वपूर्ण है। कौन-सा कर्म बन्धनकारक है और कौन-सा कर्म बन्धनकारक नहीं है, इसका निर्णय क्रिया के बाह्यस्वरूप से नहीं, वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की रागात्मकता के आधार पर होगा। पं. सुखलालजी कर्मग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं, साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्यपाप का लेप नहीं लगेगा, इससे वे काम को छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक-क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के लेप (बन्ध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। यदि कषाय (रागादिभाव) नहीं हैं, तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे, यदि कषाय का वेगभीतर वर्तमान है, तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है, वह बन्धनकारक नहीं होता।
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सन्दर्भ ग्रंथ1. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड 5, पृ. 876. 2. जैन सिद्धान्त बोल-संग्रह, भाग 3, पृ. 182.
बौद्ध-दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग 1, पृ. 480. अभिधम्मत्थसंगहो, पृ. 19-20. मनुस्मृति, 12/5/7. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4. योगशास्त्र, 4/107. स्थानांगटीका, 1/11-12. जैन धर्म, पृ. 84. समयसार नाटक उत्थानिका, 28.
भगवतीसूत्र, 7/10/121. 12. स्थानांगसूत्र, 9.
अभिधम्मत्थसंगहो,चैत्तसिक विभाग. 14. गीता, 18/17. 15. धम्मपद, 249. 16. सूत्रकृतांग, 2/6/27-42.
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