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कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व
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नहीं होता। जो फलासक्ति से मुक्त होकर कर्म करता है, वह नैष्ठिक-शान्ति प्राप्त करता है, लेकिन जो फलासक्ति से बँधा हुआ है, वह कुछ नहीं करता हुआ भी कर्म-बन्धन में बंध जाता है। गीता का उपर्युक्त कथन सूत्रकृतांग के इस कथन से भी काफी निकटता रखता है- मिथ्यादृष्टि व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ फलासक्ति से युक्त होने के कारण अशुद्ध होता है
और बन्धन का हेतु है, लेकिन सम्यक्दृष्टि व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ शुद्ध है, क्योंकि वह निर्वाण का हेतु है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि दोनों ही आचारदर्शनों में अकर्म का अर्थ-निष्क्रियता विवक्षित नहीं है, फिर भी तिलक के अनुसार यदि इसका अर्थ निष्काम-बुद्धि से किए गए प्रवृत्तिमय सांसारिक-कर्म से माना जाए, तो वह बुद्धिसंगत नहीं होगा। जैन-विचारणा के अनुसार निष्कामबुद्धि से युक्त होकर, अथवा वीतरागावस्था में सांसारिक-प्रवृत्तमय कर्म किया जाना सम्भव नहीं। तिलक के अनुसार, निष्काम बुद्धि से युक्त होकर युद्ध तक लड़ा जा सकता है, लेकिन जैन-दर्शन को यह स्वीकार नहीं है। उसकी दृष्टि में अकर्म का अर्थ मात्र शारीरिक-कर्म ही अभिप्रेत है। जैन-दर्शन की ईर्यापथिक-क्रियाएँ प्रमुखतया अनिवार्य शारीरिक-क्रियाएँ ही हैं। गीता में भी अकर्म का अर्थ शारीरिक अनिवार्य कर्म के रूप में गृहीत है (4/21)। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में अनिवार्य शारीरिक-कर्मों को अकर्म की कोटि में माना है।" जैन-विचारणा में भीअकर्म में अनिवार्यशारीरिक-क्रियाओं के अतिरिक्त निरपेक्ष भाव से जनकल्याणार्थ किए जाने वाले कर्म तथा कर्मक्षय के हेतु किया जाने वाला तप, स्वाध्याय आदि भी समाविष्ट हैं। सूत्रकृतांग के अनुसार, जो प्रवृत्तियाँ प्रमादरहित हैं, वे अकर्म हैं। तीर्थंकरों की संघ-प्रवर्तन आदि लोककल्याणकारक प्रवृत्तियाँ एवं सामान्य साधक के कर्मक्षय (निर्जरा) के हेतु किए गए सभी साधनात्मक-कर्म अकर्म हैं। संक्षेप में, जो कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बन्धनकारक नहीं हैं, वे अकर्म ही हैं। गीतारहस्य में भी तिलक ने यही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। कर्म और अकर्म का विचार करना हो, तो वह इतनी ही दृष्टि से करना चाहिए कि मनुष्य को वह कर्म कहाँ तक बद्ध करेगा, करने पर भी जो कर्म हमें बद्ध नहीं करता, उसके विषय में कहना चाहिए कि उसका कर्मत्व अथवा बन्धकत्व नष्ट हो गया। यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्वअर्थात् कर्मत्व इस प्रकार नष्ट हो जाए, तो फिर वह कर्म अकर्म ही हुआ-कर्म के बन्धकत्वसे यह निश्चय किया जाता हैं कि वह कर्म है या अकर्म। जैन और बौद्ध-आचारदर्शन में अर्हत् के क्रिया-व्यापार को तथा गीता में स्थितप्रज्ञ के क्रिया-व्यापार को बन्धन और विपाकरहित माना गया है, क्योंकि अर्हत् या स्थितप्रज्ञ में राग-द्वेष और मोहरूपी वासनाओं का पूर्णतया अभाव होता है, अत: उसका क्रिया-व्यापार बन्धनकारक नहीं होता और इसलिए वह अकर्म कहा
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