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________________ भारतीय आचार - दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन स्पष्ट है कि कर्म और अकर्म का निर्णय केवल शारीरिक क्रियाशीलता या निष्क्रियता से नहीं होता। कर्ता के भावों के अनुसार ही कर्मों का स्वरूप बनता है। इस रहस्य को सम्यक्रूपेण जानने वाला ही गीताकार की दृष्टि में मनुष्यों में बुद्धिमान् योगी है। 61 सभी विवेच्य आचारदर्शनों में कर्म - अकर्म-विचार में वासना, इच्छा या कर्तृत्वभाव प्रमुख तत्त्व माना गया है। यदि कर्म के सम्पादन में वासना, इच्छा या कर्तृत्व-बुद्धि का भाव नहीं है, तो वह कर्म बन्धनकारक नहीं होता। दूसरे शब्दों में, बन्धन की दृष्टि से वह कर्म अकर्म बन जाता है, वह क्रिया अक्रिया हो जाती है। वस्तुतः, कर्म अकर्म-विचार में क्रिया प्रमुख तत्त्व नहीं है, प्रमुख तत्त्व है - कर्ता का चेतना - पक्ष । यदि चेतना जाग्रत है, अप्रमत्त है, विशुद्ध है, वासनाशून्य है, यथार्थदृष्टि सम्पन्न है, तो फिर क्रिया का बाह्य स्वरूप अधिक मूल्य नहीं रखता। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं, जो आत्म-तत्त्व में स्थिर है, वह बोलते हुए भी नहीं बोलता है, चलते हुए भी नहीं चलता है, देखते हुए भी नहीं देखता है । 12 आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है, रागादि (भावों) से मुक्त व्यक्ति के द्वारा आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) हो जाए, तो वह हिंसा नहीं है' 3, अर्थात् हिंसा और अहिंसा, पाप और पुण्य मात्र बाह्य-परिणामों पर निर्भर नहीं होते, वरन् उसमें कर्त्ता की चित्तवृत्ति ही प्रमुख है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट कहा गया है, भावों से विरक्त जीव शोकरहित हो जाता है, वह कमल-पत्र की तरह संसार में रहते हुए भी लिप्त नहीं होता । 64 गीताकार भी इसी विचारदृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है - जिसने कर्म-फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो वासनाशून्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षारहित है और आत्मतत्त्व में स्थिर होने के कारण आलम्बनरहित है, वह क्रियाओं को करते हुए भी कुछ नहीं करता है । " गीता का अकर्म जैनदर्शन के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है। जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया जाने वाला समस्त क्रिया- व्यापार मोक्ष का हेतु होने से अकर्म ही माना गया है। इसी प्रकार, गीता में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश के पालनार्थ जो नियत - कर्म किया जाता है, वह अकर्म ही माना गया है। दोनों में जो विचार - साम्य है, वह तुलनात्मक अध्ययन करने वाले के लिए काफी महत्वपूर्ण है। गीता और जैनागम - आचारांग में मिलने वाला निम्न विचार-साम्य भी विशेष रूप से द्रष्टव्य है । आचारांगसूत्र में कहा गया है, 'अग्रकर्म और मूलकर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म कर। ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर वह साधक निष्कर्म ही कहा जाता है। निष्कर्मता के जीवन में उपाधियों का आधिक्य नहीं होता, लौकिक-प्रदर्शन नहीं होता। उसका शरीर मात्र योगक्षेम (शारीरिक क्रियाओं) का वाहक होता है । " गीता कहती है- आत्मविजेता, इन्द्रियजित्, सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कर्म का कर्त्ता होने पर निष्कर्म कहा जाता है। वह कर्म से लिप्त "66. 384 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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