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________________ कर्म का अशुभत्व शुभत्व एवं शुद्धत्व उन्हें विकर्म कहा गया है, साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, सेवा आदि शुभ कर्म किए जाते हैं, वे भी विकर्म कहलाते हैं। गीता में कहा गया है, जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी, शरीर की पीड़ा सहित, अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के विचार से किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। " साधारणतया मन, वाणी एवं शरीर से होने वाले हिंसा, असत्य, चोरी आदि निषिद्ध कर्ममात्र ही विकर्म समझे जाते हैं, परन्तु बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म भी कभी कर्त्ता की भावनानुसार कर्म या अकर्म के रूप में बदल जाते हैं। आसक्ति और अहंकार से रहित होकर शुद्ध भाव एवं मात्र कर्तव्य - बुद्धि से किए जाने वाले कर्म (जो बाह्यत: विकर्म प्रतीत होते हैं) भी फलोत्पादक न होने से अकर्म ही हैं। 57 3. अकर्म - फलासक्तिरहित हो अपना कर्तव्य समझकर जो भी कर्म किया जाता है, उस कर्म का नाम अकर्म है। गीता के अनुसार, परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्त्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुनि के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देने वाला होने से अकर्म ही है। 58 11. अकर्म की अर्थ-विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन क्रिया- व्यापार को बन्धकत्व की दृष्टि से भागों में बाँट देते हैं- 1. बन्धक - कर्म और 2. अबन्धक - कर्म । अबन्धक क्रिया- -व्यापार को जैन-दर्शन में अकर्म या ईर्यापथिक-कर्म, बौद्धदर्शन में अकृष्ण- अशुक्ल - कर्म या अव्यक्त कर्म तथा गीता में अकर्म कहा गया है। सभी समालोच्य आचारदर्शनों की दृष्टि में अकर्म, कर्म - अभाव नहीं है। जैन- विचारणा के अनुसार कर्म - प्रकृति के उदय को समझकर, बिना -द्वेष के जो कर्म होता है, वह अकर्म ही है। मन, वाणी, शरीर की क्रिया के अभाव का नाम ही अकर्म नहीं है । गीता के अनुसार, व्यक्ति की मनोदशा के आधार पर क्रिया न करने वाले व्यक्तियों का क्रियात्यागरूप अकर्म भी कर्म बन सकता है और क्रियाशील व्यक्तियों राग 383 कर्म भी अकर्म बन सकता है। गीता कहती है, कर्मेन्द्रियों की सब क्रियाओं को त्याग क्रियारहित पुरुष (जो अपने को सम्पूर्ण क्रियाओं का त्यागी समझता है) के द्वारा प्रकट रूप से कोई काम होता हुआ नदीखने पर भी त्याग का अभिमान या आग्रह रहने के कारण उससे वह त्यागरूपकर्म होता है। उसका वह त्याग का अभिमान या आग्रह अकर्म को भी कर्म बना देता है ।" इसी प्रकार, कर्त्तव्य प्राप्त होने पर भय या स्वार्थवश कर्तव्य-कर्म से मुँह मोड़ना, विहित कर्मों का त्याग कर देना आदि में भी कर्म नहीं होते, परन्तु इस दशा में भी भय या रागभाव अकर्म को भी बना देता है। ° अनासक्त- -वृत्ति और कर्तव्य-दृष्टि से जो कर्म किया जाता है, वह कर्म राग-द्वेष के अभाव के कारण अकर्म बन जाता है। उपर्युक्त विवेचन से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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