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________________ कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व 373 पाप को पाप समझते हुए जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम (वासना-निग्रह) में शिथिल है, परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मानकर पाप में पड़े हैं।20 पाश्चात्य-आचारदर्शन में भी सुखवादी-दार्शनिक कर्म की फलश्रुति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जबकि मार्टिन्यू कर्मप्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है। जैन-दर्शन के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य-विचारणाओं में अपूर्ण सत्य है- एक का आधार लोकदृष्टि है तथा दूसरी का आधार परमार्थ-दृष्टि या शुभ दृष्टि है, एक व्यावहारिक-सत्य है और दूसरा पारमार्थिक-सत्य। नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है, अत: उसमें दोनों का ही मूल्य है। कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के निर्णय का आधार माने, याकर्म के समाज पर होने वाले परिणाम को, दोनों स्थितियों में किस प्रकार का कर्म पुण्य-कर्म या उचित कर्म कहा जाएगा और किस प्रकार का कर्म पाप-कर्म या अनुचित कर्म कहा जाएगा, इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। सामान्यतया, भारतीय-चिन्तन में पुण्य-पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक-दृष्टि ही प्रमुख है। जहाँ कर्म-अकर्म का विचार व्यक्ति-सापेक्ष है, वहाँ पुण्य-पाप का विचार समाज-सापेक्ष है। जब हम कर्म-अकर्म या कर्मबन्ध का विचार करते हैं, तो वैयक्तिक कर्म-प्रेरक या वैयक्तिक-चेतना की विशुद्धता (वीतरागता) ही हमारे निर्णय का आधार बनती है, लेकिन जब हम पुण्य-पाप का विचार करते हैं, तो समाज-कल्याण या लोकहित ही हमारे निर्णय का आधार होता है। वस्तुतः, भारतीय-चिन्तन में जीवनादर्श तो शुभाशुभत्व की सीमा से ऊपर उठना है। उस सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त-जीवनदृष्टि का निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के बन्धन याअबन्धन का आधार है, लेकिन शुभ और अशुभ-दोनों में ही राग तो होता ही है, राग के अभाव में तो कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर अतिनैतिक (शुद्ध) होगा। शुभाशुभ कर्मों में प्रमुखता राग की उपस्थिति याअनुपस्थिति की नहीं, वरन् उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है। प्रशस्त-राग शुभ या पुण्यबन्धका कारण माना गया है और अप्रशस्तराग अशुभ या पापबन्ध का कारण है। राग की प्रशस्तता उसमें द्वेष की कमी के आधार पर निर्भर करती है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं, तथापि जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और मन्द होगी, वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा और तीव्रता जितनी अधिक होगी, राग उतना ही अप्रशस्त होगा। द्वेषविहीन राग या प्रशस्त-रागही निष्काम प्रेम कहा जाता है। उस प्रेमसे परार्थ या परोपकारवृत्ति का उदय होता है, जो शुभ का सृजन करती है। उसी से लोक-मंगलकारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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