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________________ भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन काही भाग होगा। इसके विपरीत, वही डॉक्टर करुणा से प्रेरित होकर व्रण चीरता है। और कदाचित् उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो भी डॉक्टर अपनी शुभ- भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है।” पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्य-बंध और पाप-बंध की सच्ची कसौटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्त्ता का आशय ही है। 18 372 - इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि जैन-धर्म में भी कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं, फिर भी उसमें कर्म का बाह्य स्वरूप उपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि मनोवृत्तियाँ ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से कर्म का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है। सूत्रकृतांग में आर्द्रककुमार बौद्धों की एकांगी-धारणा का निरसन करते हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो, चाहे न जानते हुए ही खाता हो, तो भी उसको पाप लगता ही है। हम जानकर नहीं खाते, इसलिए दोष (पाप) नहीं लगता, ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? " इससे स्पष्ट है कि जैन- दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वास्तव में, सामाजिक-दृष्टि या लोक-व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता है। सामाजिक न्याय तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसी शुभाशुभता का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिकवृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं । जैन- दृष्टि एकांगी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है । वह व्यक्ति सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है । उसमें द्रव्य ( बाह्य) और भाव (आंतरिक ) - - न का मूल्य है। योग (बाह्य-क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) - दोनों ही बन्धन के कारण माने गए हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही प्रमुख कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद नहीं मानती। उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं। मन में शुभ भाव हो, तो पापाचरण सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है ? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है। मानसिक - हेतु पर ही जोर देने वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है, “कर्म - बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फँसते रहते हैं कि पाप लगने के तीन स्थान हैं- स्वयं करने से, दूसरे से कराने से, दूसरों के कार्य का अनुमोदन करने से, परन्तु यदि हृदय पापमुक्त हो, तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, मन से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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