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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य-कर्म निस्सृत होते हैं, जबकि द्वेषयुक्त अप्रशस्त राग ही घृणा को जन्म देकर स्वार्थ-वृत्ति का विकास करता है। उससे अशुभ, अमंगलकारी पापकर्म निस्सृत होते हैं। संक्षेप में, जिस कर्म के पीछे प्रेम और परार्थ होता है, वह पुण्य कर्म है और जिस कर्म पीछे घृणा और स्वार्थ होता है, वह पाप कर्म है।
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जैन-आचारदर्शन पुण्य-कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर अधिक जोर देता है, वे सभी समाज सापेक्ष हैं। वस्तुतः, शुभ -अशुभ के वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय-चिन्तकों की दृष्टि में पुण्य और पाप की समग्र चिन्तना का सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि 'परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है ।' जैन- विचारकों ने पुण्य-बन्ध
दान, सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है, उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक-मंगल से है । इसी प्रकार, पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे सभी लोक-मंगलकारी तत्त्व हैं। 2" इस प्रकार, जहाँ तक शुभ-अशुभ या पुण्यपाप के वर्गीकरण का प्रश्न है, हमें सामाजिक-संदर्भ में उसे देखना होगा; यद्यपि बन्धन की दृष्टि से विचार करते समय कर्त्ता के आशय को भुलाया नहीं जा सकता।
5.
सामाजिक - जीवन में आचरण के शुभत्व का आधार
यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गए व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है, लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन-सा व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौन-सा अशुभ होगा, इसका निर्णय किस आधार पर किया जाए ? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यही है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए प्रतिकूल समझते हैं, वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना, यही शुभाचरण है। इसके विपरीत, जो व्यवहार हमें अपने लिए प्रतिकूल लगता है, वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा व्यवहार हमें अपने लिए अनुकूल लगता है, वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना अशुभाचरण है। भारतीयऋषियों का यही संदेश है। संक्षेप में, सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है।
जैन - दर्शन का दृष्टिकोण
जैन-दर्शन के अनुसार जिस व्यक्ति में संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का सृष्टा है। 22 दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है, वह पाप कर्म का बन्धन नहीं करता । 23 सूत्रकृतांग के अनुसार भी धर्म-अधर्म (शुभाशुभत्व) के निर्णय में अपने समान
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