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भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
कोई स्थान नहीं रहेगा, अतः मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति को ही मानना पड़ेगा। समग्र मानवता की पीड़ा का कारण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही है। जैन- विचारणा में इस सम्बन्ध में सामुदायिक-धर्म की धारणा को स्वीकार किया गया है, जिसका बन्धन और विपाक - दोनों ही समग्र समाज के सदस्यों को एक साथ होता है। यही एक ऐसी धारणा है, इस आक्षेप का समुचित समाधान कर सकती है।
6. मैकेंजी के विचार में कर्म - सिद्धान्त यान्त्रिक-रूप में कार्य करता है और कर्म के मनोवैज्ञानिक पक्ष या प्रयोजन को विचार में नहीं लेता है। 64
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मैकेंजी का यह दृष्टिकोण भी भ्रान्तिपूर्ण ही है । कर्म - सिद्धान्त कर्म के मनोवैज्ञानिक पक्ष या कर्त्ता के प्रयोजन को महत्वपूर्ण स्थान देता है। कर्म के मानसिकपक्ष के अभाव में तो बौद्ध और वैदिक-विचारणाओं में कोई बन्धन ही नहीं माना गया है। यद्यपि जैन- विचारणार्यापथिक-बन्ध के रूप में कर्म के बाह्य-पक्ष को स्वीकार करती है, लेकिन उसके अनुसार भी बन्धन का प्रमुख कारण तो यही मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जैन - साहित्य में तन्दुल मत्स्य की कथा स्पष्ट रूप से यह बताती है कि कर्म की बाह्यक्रियान्विति के अभाव में भी मात्र वैचारिक या मनोवैज्ञानिक पक्ष ही बन्धन का सृजन कर देता है, अतः कर्म - सिद्धान्त में मनोवैज्ञानिक पक्ष या कर्म के मानसिक पहलू की उपेक्षा नहीं हुई है।
इस प्रकार, कर्म-सिद्धान्त पर किए जाने वाले आक्षेप नैतिकता की दृष्टि से निर्बल ही सिद्ध होते हैं । कर्म - सिद्धान्त में अनन्य आस्था रखकर ही नैतिक जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है।
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सन्दर्भ ग्रंथ -
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