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________________ कर्म-सिद्धान्त 363 जाता है। कर्म-सिद्धान्त किसी ईश्वर की कृपा की भीख की अपेक्षा आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाता है। 4. कर्म-सिद्धान्त में लोकहित के लिए उठाए गए कष्ट और पीड़ा की प्रशंसा निरर्थक है। इस आक्षेपसे मैकेंजी का तात्पर्य यह है कि यदि कर्म-सिद्धान्त में निष्ठा रखने वाला व्यक्ति लोकहित के कार्य करता है, तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह वस्तुत: लोकहित नहीं, वरन् स्वहित ही कर रहा है। उसके द्वारा किए गए लोकहित के कार्यों का प्रतिफल उसे मिलनेवाला है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार लोकहित में भी स्वार्थ-बुद्धि होती है, अत: लोकहित के कार्य प्रशंसनीय नहीं माने जा सकते। यद्यपि यह सत्य है कि कर्म-सिद्धान्त में आस्था रखने पर लोकहित में भी स्वार्थबुद्धि हो सकती है और इस आधार पर व्यक्ति का लोकहित का कर्म प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता। स्वार्थ-बुद्धि से किए गए लोकहित कर्मों को भारतीय-आचारदर्शनों में भी प्रशंसनीय नहीं कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें लोकहित का कोई स्थान नहीं है। भारतीय-आचारदर्शनों में तो निष्काम-बुद्धि से किया गया लोकहित ही सदैव प्रशंसनीय माना गया है। इस प्रश्न पर पारमार्थिक और व्यावहारिक-दृष्टि से भी विचार कर लिया जाए। यद्यपि पारमार्थिक-दृष्टि से भारतीय-आचारदर्शन अपने कर्म-सिद्धान्त के द्वारा यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति किसी भी दूसरे का हित-अहित नहीं कर सकता, लेकिन व्यावहारिक-दृष्टि से या निमित्त-कारण की दृष्टि से यह अवश्य माना गया है कि व्यक्ति दूसरे के सुख-दुःख का निमित्त-कारण बन सकता है और इस आधार पर उसका लोक-हित प्रशंसनीय भी माना जा सकता है। व्यावहारिक-नैतिकता की दृष्टि से लोकहित का महत्व भारतीय आचारदर्शनों में स्वीकृत रहा है। डॉ. दयानन्द भार्गव के शब्दों में, आध्यात्मिकआत्मसाक्षात्कार, न कि समाजसेवा, जीवन का परम साध्य है; लेकिन समाजसेवा आध्यात्मिक-आत्मसाक्षात्कार की सीढ़ी का प्रथम पत्थर ही सिद्ध होती है। 62 5. मैकेंजी के विचार में कर्म-सिद्धान्त के आधार पर मानव-जाति की पीडाओं एवं दु:खों का कोई कारण नहीं बताया जा सकता। इस आक्षेप का समाधान यह है कि कोई भी कार्य अकारण नहीं हो सकता। उसका कोई न कोई कारण तो अवश्य ही मानना पड़ेगा। यदि मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति नहीं है, तो या तो उसका कारण ईश्या होगा, या प्रकृति। यदिइसका कारण ईश्वर है, तो वह निर्दयी ही सिद्ध होगा और यदि इसका कारण प्रकृति है, तो मनुष्य के सम्बन्ध में यान्त्रिकता की धारणा को स्वीकार करना होगा, लेकिन मानव-व्यवहार के यान्त्रिकता के सिद्धान्त में नैतिक और जीवन के उच्च मूल्यों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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