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भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
सिद्ध होता है, क्योंकि जीवनयुक्त मानने पर यह भी सम्भव है कि उन्होंने पूर्व जीवन में कोई ऐसा शुभ या अशुभ कर्म किया होगा, जिसका परिणाम वे प्राप्त कर रहे हैं। इस प्रकार, दोनों ही दृष्टियों से यह आक्षेप समुचित प्रतीत नहीं हुआ।
कर्म - सिद्धान्त पर मेकेंजी के आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर
पाश्चात्य - आचारदर्शन के प्रमुख विद्वान् जान मेकेंजी ने अपनी पुस्तक हिन्दू एथिक्स कर्म सिद्धान्त पर कुछ आक्षेप किए हैं
1. कर्म - सिद्धान्त में अनेक ऐसे कर्मों को भी शुभाशुभ फल देने वाला मान लिया गया है, जिन्हें सामान्यतया नैतिक दृष्टि से अच्छा या बुरा नहीं कहा जाता है ।" वस्तुतः, जी का यह आक्षेप कर्म सिद्धान्त पर न होकर मात्र प्राच्य और पाश्चात्य - आचारदर्शन अन्तर को स्पष्ट करता है। पाश्चात्य - विचारणा में अनेक प्रकार के धार्मिक क्रिया-कर्मों, निषेधात्मक एवं वैयक्तिक-सद्गुणों, जैसे- उपवास, ध्यानादि तथा पशु - जगत् में प्रदर्शित सहानुभूति एवं करुणा को नैतिक दृष्टि से शुभाशुभ नहीं माना गया है, लेकिन दृष्टिकोण का भेद है, क्योंकि पाश्चात्य - आचारदर्शन नीतिशास्त्र को मानव समाज के पारस्परिकव्यवहारों तक सीमित करता है, अत: यह दृष्टिभेद स्वाभाविक है। भारतीय चिन्तन का आचारदर्शन के प्रति व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण इन्हें नैतिक मूल्य प्रदान कर देता है।
2. मैकेंजी का दूसरा आक्षेप यह है कि कर्म सिद्धान्त के अनुसार पुरस्कार और दण्ड दो बार दिए जाते हैं। एक बार स्वर्ग और नरक में और दूसरी बार भावी जन्म में | 19 मैकेंजी का यह आक्षेप परलोक की धारणा को नहीं समझ पाने के कारण है। भावी जन्म में स्वर्ग और नरक के जीवन भी सम्मिलित हैं। कोई भी कर्म केवल एक ही बार अपना फल प्रदान करता है, या तो वह अपना फल स्वर्गीय जीवन में दे या नारकीय जीवन में, अथवा इसी लोक में मानवीय एवं पाशविक जीवनों में।
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3. कर्म - सिद्धान्त ईश्वरीय कृपा के विचार के विरोध में जाता है। 50
जहाँ तक मैकेंजी के इस आक्षेप का प्रश्न है, जैन और बौद्ध - दृष्टिकोण निश्चित रूप से अपने कर्म - सिद्धान्त की धारणा में ईश्वरीय कृपा को कोई स्थान नहीं देते हैं। जैन- दर्शन के अनुसार व्यक्ति स्वयं ही अपने विकास और पतन का कारण बनता है, अत: उसके लिए ईश्वरीय कृपा का कोई अर्थ नहीं है। गीता में ईश्वरीय कृपा का स्थान है, लेकिन साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि ईश्वर कर्म-नियम के अनुसार ही व्यवहार करता है। यह सत्य है कि कर्म - सिद्धान्त और ईश्वरीय कृपा ये दो धारणाएँ एक-दूसरे के विरोध में जाती हैं, लेकिन गीता के अनुसार यह मान लिया जाए कि ईश्वर कर्म-नियम के अनुसार शासन करता है, तो दोनों धारणाओं में कोई विरोध नहीं रह
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