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कर्म-सिद्धान्त
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निष्कर्ष
वस्तुतः, कर्म-सिद्धान्त में कर्मविपाक की नियतता और अनियतता की दोनों विरोधी धारणाओं के समन्वय के अभाव में नैतिक-जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं होती है। यदि एकान्त रूप से कर्म-विपाक की नियतता को स्वीकार किया जाता है, तो नैतिक-आचरण का चाहे निषेधात्मक कुछ मूल्य बना रहे, लेकिन उसका विधायक-मूल्य पूर्णतया समाप्त हो जाता है। नियत भविष्य के बदलने की सामर्थ्य नैतिक-जीवन में नहीं रह पाती है। दूसरे, यदि कर्मों को पूर्णत: अनियतविपाकी माना जाए, तो नैतिक-व्यवस्था का ही कोई अर्थ नहीं रहता है। विपाक की पूर्ण नियतता मानने पर निर्धारणवाद और विपाक की पूर्ण अनियतता मानने पर अनिर्धारणवाद की सम्भावना होगी, लेकिन दोनों हीधारणाएँ एकान्तिक-रूप में नैतिक-जीवन की समुचित व्याख्या कर पाने में असमर्थ हैं, अत: कर्मविपाक की नियततानियतता ही एक तर्कसंगत दृष्टिकोण है, जो नैतिक-दर्शन की सम्यक् व्याख्या प्रस्तुत करता है।
इसके पूर्व कि हम इस अध्याय को समाप्त करें, हमें कर्म-सिद्धान्त के सम्बन्ध में पाश्चात्य एवं भारतीय-विचारकों के आक्षेपों पर भी विचार कर लेना चाहिए। 15. कर्म-सिद्धान्त पर आक्षेप और उनका प्रत्युत्तर ।
कर्म-सिद्धान्त को अस्वीकार करने वाले विचारकों के द्वारा कर्म-सिद्धान्त के प्रतिषेध के लिए प्राचीनकाल से ही तर्क प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में उन विचारकों के द्वारा दिए जाने वाले कुछ तों का दिग्दर्शन कराया है। कर्म-सिद्धान्त के विरोध में उन विचारकों का निम्न तर्क है, एक प्रस्तरखण्ड जब प्रतिमा के रूप में निर्मित हो जाता है, तबस्नान, अंगराग, माला, वस्त्र और अलंकारों से उसकी पूजा की जाती है। विचारणीय यह है कि उस प्रतिमारूप प्रस्तरखण्ड ने कौन-सा पुण्य किया था? एक अन्य प्रस्तरखण्ड, जिस पर उपविष्ट होकर लोग मल-मूत्रविसर्जन करते हैं, उसने कौन-सा पाप-कर्म किया था? यदि प्राणी कर्म से ही जन्म ग्रहण करते हैं और मरते हैं, फिर जल के बुदबुद किस शुभाशुभ कर्म से उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं ?'57
कर्म-सिद्धान्त के विरोध में दिया गया यह तर्क वस्तुत: एक भ्रान्त धारणा पर खड़ा हुआ है। कर्म-सिद्धान्त का नियम शरीरयुक्त चेतन प्राणियों पर लागू होता है, जबकि आलोचक ने अपने तर्क जड़ पदार्थों के सन्दर्भ में दिए हैं। कर्म-सिद्धान्त का नियम जड़ जगत् के लिए नहीं है, अत: जड़ जगत् के सम्बन्ध में दिए हुए तर्क उस पर कैसे लागू हो सकते हैं। यदि हम जैन-दृष्टिकोण के आधार पर उन्हें जीवनयुक्त मानें, तो भी यह आक्षेप असत्य ही
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