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________________ 360 भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अनियतविपाक - कर्म (1) दृष्टधर्मवेदनीय-अनियतविपाक-कर्म, अर्थात् जो इसी जन्म में फल देनेवाला है, लेकिन जिसका फल भोग आवश्यक नहीं है। (2) उपपद्यवेदनीय-अनियतविपाककर्म, अर्थात् उत्पन्न होकर समन्तर जन्म में फल देनेवाला है, लेकिन जिसका फलभोग हो, यह आवश्यक नहीं है। (3) अपरापर्य-अनियतविपाक - कर्म, अर्थात् जो देरी से फल देने वाला है, लेकिन जिसका फल भोग आवश्यक है। (4) अनियतवेदनीय-अनियतविपाककर्म, अर्थात् जो अनुभूति और विपाक दोनों दृष्टियों से अनियत है। इस प्रकार, बौद्ध-विचारक न केवल कर्मों के विपाक में नियतता और अनियतता को स्वीकार करते हैं, वरन् दोनों की विस्तृत व्याख्या भी करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि कौन कर्म नियतिविपाकी होगा- प्रथमतः, वे कर्म, जो केवल कृत नहीं, किन्तु उपचित भी हैं, नियतविपाक कर्म हैं। कर्म के उपचित होने का मतलब है, कर्म का चैत्तसिक के साथसाथ भौतिक दृष्टि से भी परिसमाप्त होना। दूसरे, वे कर्म, जो तीव्र प्रसाद (श्रद्धा) और तीव्र क्लेश (राग-द्वेष से किए जाते हैं, नियतविपाक कर्म हैं। बौद्ध दर्शन की यह धारणा जैनदर्शन से बहुत कुछ मिलती है, लेकिन प्रमुख अन्तर यही है कि जहाँ बौद्ध दर्शन तीव्र श्रद्धा और तीव्र राग-द्वेष- दोनों अवस्था में होने वाले कर्म को नियतविपाकी मानता है, वहाँ जैनदर्शन मात्र राग-द्वेष (कषाय) की अवस्था में किए हुए कर्मों को ही नियतविपाकी मानता है । तीव्र श्रद्धा की अवस्था में किए गए कर्म जैन- दर्शन के अनुसार नियतविपाकी नहीं हैं। हाँ, यदि तीव्र श्रद्धा के साथ प्रशस्त राग होता है, तो शुभ कर्मबन्ध तो होता है, लेकिन वह नियतविपाकी ही हो, यह अनिवार्य नहीं है। दोनों ही इस बात में सहमत हैं कि मातृवध, पितृवध तथा धर्म, संघ और तीर्थ तथा धर्मप्रवर्तक के प्रति किए गए अपराध नियतविपाकी होते हैं। **** गीता का दृष्टिकोण - 56 वैदिक परम्परा में यह माना गया है कि संचित कर्म को ज्ञान के द्वारा बिना फलभोग ष्ट किया जा सकता है। इस प्रकार, वैदिक परम्परा कर्मविपाक की अनियतता को स्वीकार कर लेती है। ज्ञानाग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है, " अर्थात् ज्ञान के द्वारा संचित कर्मों को नष्ट किया जा सकता है, यद्यपि वैदिक परम्परा में आरब्ध कर्मों का भोग अनिवार्य माना गया है। इस प्रकार, वैदिक परम्परा में कर्म विपाक की नियतता और अनियततादोनों स्वीकार की गई हैं, फिर भी उसमें संचित कर्मों की दृष्टि से नियतविपाक का विचार नहीं मिलता। सभी संचित कर्म अनियतविपाकी मान लिये गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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