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कर्म-सिद्धान्त
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कर्मों को अनियतविपाकी नहीं मानती। जिन कर्मों का बन्ध तीव्र कषाय भावों के फलस्वरूप होता है, उन्हें वह नियतविपाकी-कर्म मानती है। वैयक्तिक-दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्मविपाक में परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती। जब व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँच जाता है, तभी उसमें कर्म-विपाक को अनियत बनाने की शक्ति उत्पन्न होती है, फिर भी स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति जितनी ही आध्यात्मिक ऊँचाई पर स्थित हो, वह मात्र उन्हीं कर्मों का विपाक अनियत बना सकता है, जिनका बन्ध अनियतविपाकी-कर्म के रूप में हुआ है। जिन कर्मों का बन्ध नियतविपाकी-कर्मों के रूप में हुआ है, उनका भोग अनिवार्य है। इस प्रकार, जैन-विचारणा कर्मों की नियतता और अनियतता के दोनों पक्षों को स्वीकार करती है और इस आधार पर अपने कर्म-सिद्धान्त को नियतिवाद और यदृच्छावाद के दोषों से बचा लेती है। बौद्ध-दृष्टिकोण
बौद्ध-दर्शन में भी कर्मों के विपाक की नियतता और अनियतता का विचार किया गया है। बौद्ध-दर्शन में कर्मों को नियत-विपाकी और अनियत-विपाकी, दोनों प्रकार का माना गया है। जिन कर्मों का फल-भोग अनिवार्य नहीं,या जिनका प्रतिसंवेदन आवश्यक नहीं, वे कर्म अनियतविपाकी हैं। अनियतविपाकी-कर्म के फलभोग का उल्लंघन हो सकता है। इसके अतिरिक्त, वे कर्म, जिनका प्रतिसंवेदन या फलभोग अनिवार्य है, वे नियतविपाकी-कर्म हैं, अर्थात् उनके फलभोग का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। कुछ बौद्ध-आचार्यों ने नियतविपाकी और अनियतविपाकी-कर्मों में प्रत्येक को चार-चार भागों में विभाजित किया है। नियतविपाक-कर्म
(1) दृष्टधर्मवेदनीय-नियतविपाक-कर्म, अर्थात् इसी जन्म में अनिवार्य फल देनेवाला कर्म। (2) उपपद्यवेदनीय-नियतविपाक-कर्म, अर्थात् उत्पन्न होकर समन्तर जन्म में अनिवार्य फल देनेवाला कर्म। (3) अपरापर्यवेदनीय-नियतविपाक-कर्म, अर्थात् विलम्ब से अनिवार्य फल देनेवाला कर्म। (4) अनियतवेदनीय, किन्तु नियतविपाक-कर्म, अर्थात् वे कर्म, जो विपच्यमान तो हैं (जिनका स्वभाव बदला जा सकता है एवं सातिक्रमण हो सकता है), किन्तु जिनका भोग अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त, कुछ आचार्यों के अनुसार नियतिविपाककर्म पर विपाक-काल की नियतता के आधार पर भी विचार किया जा सकता है और ऐसी अवस्था में नियतविपाक-कर्म के दो रूप होंगे- (1) जिनका विपाक भी नियत है और विपाक-काल भी नियत है तथा (2) वे, जिनका विपाक तो नियत है, लेकिन विपाककाल नियत नहीं। ऐसे कर्म अपरापर्यवेदनीय से दृष्टधर्मवेदनीय बन जाते हैं।
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