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________________ भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन अनारब्ध कहा जाएगा।2 तुलना की दृष्टि से कर्म की अनारब्ध या संचित अवस्था ही 'सत्ता' की अवस्था कही जा सकती है। इसी प्रकार, प्रारब्ध कर्म की तुलना कर्म की उदय - अवस्था से की जा सकती है। कुछ लोग नवीन कर्म-संचय की दृष्टि से क्रियमाण नामक स्वतन्त्र अवस्था मानते हैं। क्रियमाण-कर्म की तुलना जैन- विचारणा के बन्धमानकर्म से की जा सकती है। डॉ. टॉटिया संचित कर्म की तुलना कर्म की सत्ता-अवस्था से, प्रारब्ध - कर्म की तुलना उदय- -कर्म से तथा क्रियमाण-कर्म की तुलना बन्धमान- - कर्म करते हैं । वैदिक परम्परा में कर्म की उपशमन - अवस्था की मान्यता का स्पष्ट निर्देश तो नहीं मिलता, फिर भी महाभारत में पाराशरगीता में एक निर्देश है, जिसमें कहा गया है कभी-कभी मनुष्य का पूर्वकाल में किया गया पुण्य ( अपना फल देने की राह देखता हुआ) चुप बैठा रहता है। 54 इस अवस्था की तुलना जैन- विचारणा के उपशमन से की जा सकती है। 358 कर्म की इन विभिन्न अवस्थाओं का प्रश्न कर्मविपाक की नियतता से सम्बन्धित है, अतः इस प्रश्न पर भी थोड़ा विचार कर लेना आवश्यक है। 14. कर्म विपाक की नियतता और अनियतता जैन- दृष्टिकोण हमने ऊपर कर्मों की अवस्थाओं पर विचार करते हुए देखा कि कुछ कर्म ऐसे हैं, जिनका विपाक नियत है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, जो जैन- विचारणा में निकाचित-कर्म कहे जाते हैं। जिनका बन्ध जिस विपाक को लेकर होता है, उसी विपाक के द्वारा वे क्षय (निर्जरित) होते हैं, अन्य किसी प्रकार से नहीं, यही कर्म विपाक की नियतता है। इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी हैं, जिनका विपाक उसी - रूप में अनिवार्य नहीं होता। उनके विपाक के स्वरूप, मात्रा, समयावधि एवं तीव्रता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है, जिन्हें हम अनिकाचित-कर्म के रूप में जानते हैं। जैन- विचारणा कर्म - विपाक की नियतता और अनियतता- दोनों को ही स्वीकार करती है और बताती है कि कर्मों के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता एवं अल्पता के आधार पर ही क्रमश: नियत - विपाकी एवं अनियत - विपाकी कर्मों का बन्ध होता है। जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे तीव्र कषाय (वासनाएँ) होती हैं, उनका बन्ध भी अति प्रगाढ़ होता है और उसका विपाक भी नियत होता है। इसके विपरीत, जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषाय अल्प होती है, उनका बन्धन शिथिल होता है और इसीलिए उनका विपाक भी अनियत होता है। जैन कर्म - सिद्धान्त की संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशमन की अवस्थाएँ कर्मों के अनियत-विपाक की ओर संकेत करती हैं, लेकिन जैन- विचारणा सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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