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कर्म-सिद्धान्त
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में रूपान्तरित हो सकते हैं और न अपना फल प्रदान कर सकते हैं, लेकिन कर्मों की समयमर्यादा और विपाक-तीव्रता (परिमाण) को कम-अधिक किया जा सकता है, अर्थात् इस अवस्था में उत्कर्षण और अपकर्षण सम्भव हैं।
10. निकाचना-कर्मों का बन्धन इतना प्रगाढ़होना कि उनकी काल-मर्यादा एवं तीव्रता (परिणाम) में कोई परिवर्तन न किया जा सके, नसमय के पूर्व उनका भोग ही किया जा सके, निकाचना कहा जाता है। इसमें कर्म का जिस रूप में बन्धन हुआ होता है, उसी रूप में उसको अनिवार्यतया भोगना पड़ता है। कर्म की अवस्थाओंपर बौद्ध-कर्म की दृष्टि से विचार एवं तुलना
बौद्ध कर्म-विचारणा में जनक, उपस्थम्भक, उपपीलक और उपघातक-ऐसे चार कर्म माने गए हैं। जनक-कर्म दूसरा जन्म ग्रहण करवाते हैं, इस रूप में वे सत्ता की अवस्था से तुलनीय हैं। उपस्थम्भक-कर्म दूसरे कर्म का फल देने में सहायक होते हैं, ये उत्कर्षण की प्रक्रिया के सहायक माने जा सकते हैं। उपपीलक-कर्म दूसरे कर्मों की शक्ति को क्षीण करते हैं, ये अपवर्तन की अवस्था से तुलनीय हैं। उपघातक-कर्म दूसरे कर्म का विपाक रोककर अपना फल देते हैं, ये कर्म उपशमन की प्रक्रिया के निकट हैं। बौद्ध-दर्शन में कर्म-फल के संक्रमण की धारणा स्वीकार की गई है। बौद्ध-दर्शन यह मानता है कि यद्यपि कर्म (फल) का विप्रणाश नहीं है, तथापि कर्म-फल का सातिक्रमहो सकता है। विपच्यमान कर्मों का संक्रमण हो सकता है। विपच्यमान कर्म वे हैं, जिनको बदला जा सकता है, अर्थात् जिनका सातिक्रमण (संक्रमण) हो सकता है, यद्यपि फल-भोग अनिवार्य है। उन्हें अनियत-वेदनीय, किन्तु नियतविपाककर्म भी कहा जाता है। बौद्ध-दर्शन का नियत-वेदनीय नियत-विपाककर्म जैन-दर्शन के निकाचना से तुलनीय है। कर्म की अवस्थाओं पर हिन्दू-आचारदर्शन की दृष्टि से विचार एवं तुलना
कर्मों की सत्ता, उदय, उदीरणा और उपशमन-इन चार अवस्थाओं का विवेचन हिन्दू-आचारदर्शन में भी मिलता है। वहाँ कर्मों की संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण-ऐसी तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। वर्तमान क्षण के पूर्व तक किए गए समस्त कर्म संचित कर्म कहे जाते हैं, इन्हें ही अपूर्व और अदृष्ट भी कहा गया है। संचित कर्म के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है, उसे ही प्रारब्ध-कर्म कहते हैं। इस प्रकार, पूर्वबद्ध कर्म के दो भाग होते हैं। जो भाग अपना फल देना प्रारम्भ कर देता है, वह प्रारब्ध (आरब्ध) कर्म कहलाता है, शेष भाग, जिसका फलभोग प्रारम्भ नहीं हुआ है, अनारब्ध (संचित) कहलाता है। लोकमान्य तिलक ने 'क्रियमाण-कर्म'-ऐसा स्वतन्त्र अवस्था-भेद नहीं माना है। वे कहते हैं कि यदि उसका पाणिनीसूत्र के अनुसार भविष्यकालिक-अर्थ लेते हैं, तो उसे
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