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________________ भारतीय आचार - दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन अभाव में अशुभ का फल प्राप्त नहीं होता है, तो फिर शुभ का फल कैसे प्राप्त हो सकता है ? दूसरे, यह कहना कि अकुशल परिमित है, ठीक नहीं है। इस कथन का क्या आधार है कि अकुशल (पाप) परिमित है ? दूसरे, परिमित का भी भोग होना संभव है। व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर हम यह मान सकते हैं कि व्यक्ति के शुभाशुभ आचरण का प्रभाव केवल परिजनों पर ही नहीं, समाज पर भी पड़ता है । वर्त्तमान वैज्ञानिक युग में भी मनुष्य की शुभाशुभ क्रियाओं से समाज एवं भावी पीढ़ी प्रभावित होती है। एक मनुष्य की गलत नीति का परिणाम समूचे राष्ट्र और राष्ट्र की भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ता है, यह एक स्वयंसिद्ध तथ्य है। ऐसी स्थिति में कर्म-फल का संविभाग- सिद्धान्त ही हमारी व्यवहारबुद्धि को सन्तुष्ट करता है, लेकिन इस धारणा को स्वीकार कर लेने पर कर्म सिद्धान्त के मूल पर ही कुठाराघात होता है, क्योंकि कर्म-सिद्धान्त में वैयक्तिक विविध अनुभूतियों का कारण व्यक्ति के अन्दर ही माना जाता है, जबकि फल-संविभाग के आधार पर हमें बाह्य-कारण को स्वीकार करना होता है। 354 जैन कर्म - सिद्धान्त में फल-संविभाग का अर्थ समझने के लिए हमें उपादान - कारण (आन्तरिक कारण) और निमित्त कारण ( बाह्य कारण) का भेद समझना होगा। जैन कर्म - सिद्धान्त मानता है कि विविध सुखद-दुःखद अनुभूतियों का मूल कारण ( उपादानकारण) तो व्यक्ति के अपने ही पूर्व- कर्म हैं, दूसरा व्यक्ति तो मात्र निमित्त बन सकता है, अर्थात् उपादान - कारण की दृष्टि से सुख-दुःखादि अनुभव स्वकृत हैं और निमित्त - कारण की दृष्टि से परकृत हैं। गीता भी यह दृष्टिकोण अपनाती है। गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यह लोग तो अपनी ही मौत मरेंगे, तू तो मात्र निमित्त होगा, लेकिन यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि हम दूसरों का हिताहित करने में मात्र निमित्त होते हैं, तो फिर हमें पाप-पुण्य का भाग क्यों माना जाता है ? जैन- विचारकों ने इस प्रश्न का समाधान खोजा है। उनका कहना है कि हमारे पुण्य-पाप दूसरे के हिताहित की क्रिया पर निर्भर न होकर हमारी मनोवृत्ति पर निर्भर हैं। हम दूसरों का हिताहित करने पर उत्तरदायी इसलिए हैं कि वह कर्म एवं कर्म-संकल्प हमारा है। दूसरों के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण है, वही हमें उत्तरदायी नाता है। उसी के आधार पर व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है और उसका फल भोगता है। 13. जैन दर्शन में कर्म की अवस्था जैन-दर्शन में कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं पर गहराई से विचार हुआ है। प्रमुख रूप से कर्मों की दस अवस्थाएँ मानी गई हैं- 1. बन्ध, 2. संक्रमण, 3. उत्कर्षण, 4. अपवर्तन, 5. सत्ता, 6. उदय, 7. उदीरणा, 8. उपशमन, 9. निधत्ति और 10. निकाचना । 19 1. बन्ध- कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्म - परमाणुओं का आत्म- प्रदेशों से जो - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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