SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-सिद्धान्त 353 भी दान-पुण्य आदि किया जाता है, उसका फल प्रेत को मिलता है, यह मानते हैं। बौद्ध यह भी मानते हैं कि यदि प्राणी मरकर परदत्तोपजीवी-प्रेतावस्था में जन्म लेता है, तब तो उसे यहाँ उसके निमित्त किया जाने वाला पुण्यकर्म का फल मिलता है, लेकिन यदि वह मरकर मनुष्य, नारक, तिर्यंच या देव-योनि में उत्पन्न होता है, तो पुण्यकर्म करनेवाले को ही उसका फल मिलता है। इस प्रकार, बौद्ध-विचारणा कुशल कर्मों के फल-संविभाग को स्वीकार करती है। गीता एवं हिन्दू-परम्परा कादृष्टिकोण ___ गीता कर्मफल-संविभाग में विश्वास करती है, ऐसा कहा जा सकता है। गीता में श्राद्ध-तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में तथा कुलधर्म के विनष्ट होने से पितर का पतन हो जाता है, यह दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि संतानादि द्वारा किए गएशुभाशुभ कृत्यों का प्रभाव उनके पितरों पर पड़ता है। महाभारत में यह बात भी स्वीकार की गई है कि न केवल सन्तान के कृत्यों का प्रभाव पूर्वजों पर पड़ता है, वरन् पूर्वजों के शुभाशुभ कृत्यों का फल भी सन्तान को प्राप्त होता है। शान्ति-पर्व में भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं, 'हे राजन्, चाहे किसी आदमी को उसके पापकर्मों का फल उस समय मिलता हुआ न दीख पड़े, तथापि वह उसे ही नहीं, किन्तु उसके पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों तक को भोगना पड़ता है। इसी सन्दर्भ में, मनुस्मृति (4/173) एवं महाभारत (आदिपर्व, 80/3) का उद्धरण देते हुए तिलक भी लिखते हैं कि न केवल हमें, किन्तु कभी-कभी हमारे नामरूपात्मक देह से उत्पन्न लड़कों और हमारे नातियों तक को कर्मफल भोगने पड़ते हैं। इस प्रकार, हिन्दू-विचारणा सभी शुभाशुभ कर्मों के फल-संविभाग को स्वीकार करती है। तुलना एवं समीक्षा बौद्ध और हिन्दू-परम्परा में महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि हिन्दू-धर्म में मनुष्य के शुभ और अशुभ कर्मों का फल उसके पूर्वजों एवं सन्तानों को मिल सकता है, जबकि बौद्धधर्म में केवल पुण्य कर्मों का फल ही प्रेतों को मिलता है। हिन्दू-धर्म में पुण्य और पाप-दोनों कर्मों का फल-संविभाग स्वीकार किया गया है, जबकि बौद्धधर्म का सिद्धान्त यह है कि कुशल (पुण्य) कर्मकाही संविभागहो सकता है, अकुशल (पाप) कर्मका नहीं। मिलिन्दप्रश्न में दो कारणों से अकुशल कर्म को संविभाग के अयोग्य माना है (1) पाप-कर्म में प्रेत की अनुमति नहीं है, अत: उसका फल उसे नहीं मिल सकता। (2) अकुशल परिमित होता है, अत: उसका संविभाग नहीं हो सकता; किन्तु कुशल विपुल होता है, अत: उसका संविभाग हो सकता है। लेकिन विचारपूर्वक देखें, तो यह तर्क औचित्यपूर्ण नहीं है। यदि अनुमति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy