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कर्म-सिद्धान्त
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सम्बन्ध होता है, उसे जैन-दर्शन में बन्ध कहा जाता है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा एक स्वतन्त्र अध्याय में की गई है।
2.संक्रमण- एक कर्म के अनेक अवान्तर-भेद हैं और जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है। यह अवान्तर कर्मप्रकृतियों का अदल-बदल संक्रमण कहलाता है। संक्रमण वह प्रक्रिया है, जिसमें आत्मा पूर्व-बद्ध कर्मों की अवान्तरप्रकृतियों, समयावधि, तीव्रता एवं परिमाण (मात्रा) को परिवर्तित करता है। संक्रमण में आत्मा पूर्वबद्ध कर्म-प्रकृति का, नवीन कर्म-प्रकृति का बन्ध करते समय मिलाकर तत्पश्चात् नवीन कर्म-प्रकृति में उसका रूपान्तरणकरसकता है। उदाहरणार्थ, पूर्व में बद्ध दु:खद संवेदनरूप असातावेदनीय-कर्म का नवीन सातावेदनीय-कर्म का बन्ध करते समय ही सातावेदनीय कर्म-प्रकृति के साथ मिलाकर उसका सातावेदनीय-कर्म में संक्रमण किया जा सकता है। यद्यपि दर्शनमोह-कर्म की तीन प्रकृतियों मिथ्यात्वमोह, सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह में नवीन बन्ध के अभाव में भी संक्रमण सम्भव होता है, क्योंकि सम्यक्त्वमोह एवं मिश्रमोह का बन्ध नहीं होता है, वे अवस्थाएँ मिथ्यात्वमोह-कर्म के शुद्धीकरणसे होती हैं। संक्रमण कर्मों के अवान्तर-भेदों में ही होता है, मूल भेदों में नहीं होता है, अर्थात् ज्ञानावरणीय-कर्म का आयुकर्म में संक्रमण नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, कुछ अवान्तर-कर्म ऐसे हैं, जिनका रूपान्तर नहीं होता। इसी प्रकार, कोई नरकायु के बन्ध को मनुष्य-आयु के बन्ध में नहीं बदल सकता। नैतिक-दृष्टि से संक्रमण की धारणा की दो महत्वपूर्ण बातें हैं- एक तो यह है कि संक्रमण की क्षमता केवल आत्माकी पवित्रता के साथ ही बढ़ती जाती है। जो आत्मा जितनी पवित्र होती है, उतनी ही उसकी आत्मशक्ति प्रकट होती है और उतनी उसमें कर्म-संक्रमण की क्षमता भी होती है, लेकिन जो व्यक्ति जितना अधिक अपवित्र होता है, उसमें कर्म-संक्रमण की क्षमता उतनी ही क्षीण होती है और वह अधिक मात्रा में परिस्थितियों (कों) का दास होता है। पवित्र आत्माएँ परिस्थितियों की दास न होकर उनकी स्वामी बन जाती हैं। इस प्रकार, संक्रमण की प्रक्रिया आत्मा के स्वातन्त्र्य और दासताको व्यक्ति की नैतिक-प्रगति पर अधिष्ठित करती है। दूसरे, संक्रमण की धारा भाग्यवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद को सबल बनाती है।
3. उद्वर्तना- आत्मा से कर्म-परमाणुओं के बद्ध होते समय जो काषायिकतारतमता होती है, उसी के अनुसार बन्धन के समय कर्म की स्थिति तथा तीव्रता का निश्चय होता है। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार आत्मा नवीन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की कालमर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकती है। यही कर्म-परमाणुओं की काल-मर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने की क्रिया उद्वर्तना कही जाती है।
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