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भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
दूसरी ओर, शंकर एवं बौद्ध-विज्ञानवाद ने चेतन को ही चरम सत्य माना। इस प्रकार, उन्हें भी इस समस्या के समाधान का कोई प्रयास नहीं करना पड़ा, यद्यपि उनके समक्ष यह समस्या अवश्य थी कि इस दृश्य भौतिक जगत् की व्याख्या कैसे करें ? और उसका उस विशुद्ध चैतन्य परमतत्त्व से किस प्रकार सम्बन्ध स्थापित करें ? उन्होंने इस जगत् को मात्र प्रतीति बताकर समस्या का समाधान खोजा, लेकिन वह समाधान भी सामान्य बुद्धि को सन्तुष्ट न कर पाया। पश्चिम में बर्कले ने भी जड़ की सत्ता को मनस् से स्वतन्त्र न मानकर ऐसा ही प्रयास किया था, लेकिन नैतिकता की समुचित व्याख्या किसी भी प्रकार के एकतत्त्ववाद में सम्भव नहीं। जिन विचारकों ने जैन दर्शन के समान नैतिकता की व्याख्या के लिए जड़ और चेतन, पुरुष और प्रकृति, अथवा मनस् और शरीर का द्वैत स्वीकार किया, उनके लिए यह महत्वपूर्ण समस्या थी कि वे इस बात की व्याख्या करें कि इन दोनों
बीच क्या सम्बन्ध है ? पश्चिम में यह समस्या देकार्त के सामने भी उपस्थित थी । देकार्त ने इसका हल पारस्परिक प्रतिक्रियावाद के आधार पर किया, लेकिन स्वतंत्र सत्ताओं में परस्पर प्रतिक्रिया कैसी ? स्पीनोजा ने उसके स्थान पर समानान्तरवाद की स्थापना की और जड़-चैतन्य में पारस्परिक प्रतिक्रिया न मानते हुए भी उनमें एक प्रकार के समानान्तर परिवर्तन को स्वीकार किया और इसका आधार सत्ता की तात्त्विकएकता माना । लाईनीज ने प्रतिक्रियावाद की कठिनाइयों से बचने के लिए पूर्वस्थापित सामंजस्य की धारणा का प्रतिपादन किया और बताया कि सृष्टि के समय ही मन और शरीर के बीच ईश्वर ने ऐसी पूर्वानुकूलता उत्पन्न कर दी है कि उनमें सदा सामञ्जस्य रहता है, जैसे- दो अलग घड़ियाँ यदि एक बार एक साथ मिला दी जाती हैं, तो वे एक-दूसरे पर बिना प्रतिक्रिया करते हुए भी समान समय ही सूचित करती हैं, वैसे ही मानसिकपरिवर्तन और शारीरिक परिवर्तन परस्पर अप्रभावित एवं स्वतन्त्र होते हुए भी एक साथ होते रहते हैं।
पश्चिम में यह समस्या अचेतन शरीर और चेतना के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर थी, जबकि भारत में सम्बन्ध की यह समस्या प्रकृति, त्रिगुण अथवा कर्म-प - परमाणु और आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर थी । गहराई से विचार करने पर यहाँ भी मूल समस्या शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को लेकर ही है। यद्यपि शरीर से भारतीयचिन्तकों का तात्पर्य स्थूल शरीर से न होकर सूक्ष्म शरीर (लिंग- शरीर) से है । यही लिंगशरीर जैन दर्शन में कर्म शरीर कहा जाता है, जो कर्म - परमाणुओं का बना होता है और बंधन की दशा में सदैव आत्मा के साथ रहता है। यहाँ भी मूल प्रश्न यही है कि यह लिंग - शरीर या कर्म - शरीर आत्मा को कैसे प्रभावित करता है। सांख्यदर्शन पुरुष तथा
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