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कर्म - सिद्धान्त
चेतन पुरुष दोनों ही अपेक्षित हैं। प्रकृति अहंकार का भौतिक पक्ष है और पुरुष उसका चेतना - T-पक्ष । इस प्रकार, यहाँ गीता और जैनदर्शन निकट आ जाते हैं। गीता की प्रकृति जैन- दर्शन के द्रव्यकर्म के समान है और गीता का अहंकार भावकर्म के समान है। दोनों में कार्यकारणभाव है और दोनों की उपस्थिति में ही बन्धन होता है ।
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एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक
कर्ममय नैतिक जीवन की समुचित व्यवस्था के लिए, बन्धन और मुक्ति के वास्तविक विश्लेषण के लिए, एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है। एक समग्र दृष्टिकोण
और मुक्ति को न तो पूर्णतया जड़ प्रकृति पर आरोपित करता है और न उसके मात्र चैत्तसिक-तत्त्वों पर आधारित करता है । यदि कर्म का अचेतन या जड़ पक्ष ही स्वीकार किया जाए, तो कर्म आकारहीन विषयवस्तु होगा और यदि कर्म का चैत्तसिक पक्ष ही स्वीकारें, तो कर्म विषयवस्तुविहीन आकार होगा, लेकिन विषयवस्तुविहीन आकार और आकारविहीन विषयवस्तु-दोनों ही वास्तविकता से दूर हैं।
जैन कर्म-सिद्धान्त कर्म के भौतिक एवं भावात्मक पक्ष पर समुचित जोर देकर जड़ और चेतन के मध्य एक वास्तविक सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। डॉ. टाँटिया लिखते हैं, 'कर्म अपने पूर्ण विश्लेषण में जड़ और चेतन के मध्य योजक कड़ी है - यह चेतन और चेतनसंयुक्तजड़ पारस्परिक परिवर्तनों की सहयोगात्मकता को अभिव्यंजित करता है।' सांख्य-योग के अनुसार कर्म पूर्णत: जड़ प्रकृति से सम्बन्धित है और इसलिए वह प्रकृति ही है, जो बन्धन में आती है और मुक्त होती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार कर्म पूर्णतया चेतना से सम्बन्धित है और इसलिए चेतना ही बन्धन में आती है और मुक्त होती है, लेकिन जैनविचारक इन एकांगी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट नहीं थे। उनके अनुसार, संसार का अर्थ है - जड़ और चेतन का पारस्परिक-बन्धन और मुक्ति का अर्थ है- दोनों का अलग-अलग हो
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भौतिक और अभौतिक पक्षों की पारस्परिक - प्रभावकता
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वस्तुत:, नैतिक दृष्टि से यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है कि चैतन्य आत्मतत्त्व और कर्म - परमाणुओं (भौतिक तत्त्व) के मध्य क्या सम्बन्ध है ? जिन दार्शनिकों ने चरम सत्य रूप में अद्वैत की धारणा को छोड़कर द्वैत की धारणा स्वीकार की, उनके लिए यह प्रश्न बना रहा कि इनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करें। यह एक कठिन समस्या है । इस समस्या से बचने के लिए ही अनेक चिन्तकों ने एकतत्त्ववाद की धारणा स्थापित की। भारतीय चार्वाक-दार्शनिकों एवं आधुनिक भौतिकवादियों ने जड़ को ही चरम सत्य के रूप में स्वीकार किया और इस प्रकार इस समस्या के समाधान से छुट्टी पाई।
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