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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
अन्योन्याश्रयभाव से सम्बद्ध हैं। वस्तुत:, बौद्ध-दर्शन भी नाम (चेतन) और रूप (भौतिक) दोनों के सहयोग से ही कार्य-निष्पत्ति मानता है। उसका यह कहना कि चेतना ही कर्म है, केवल इस बात का सूचक है कि कार्य-निष्पत्ति में चेतना सक्रिय तत्त्व के रूप में प्रमुख कारण है। (ब) सांख्य-दर्शन और शांकरवेदान्त के दृष्टिकोण की समीक्षा
सांख्य-दार्शनिकों ने पुरुष को कूटस्थ मानकर केवल जड़ प्रकृति के आधार पर बन्धन और मुक्ति की व्याख्या करना चाहा, लेकिन वे भी पुरुष और प्रकृति के मध्य कोई वास्तविक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाए और दार्शनिकों के द्वारा कठोर आलोचना के पात्र बने। उन्होंने बुद्धि, अहंकार और मन जैसे चैतसिक-तत्त्वों को भी पूर्णत: जड़-प्रकृति का परिणाम माना, जो कि इस आलोचना से बचने का पूर्वप्रयास ही कहा जा सकता है। सांख्यदर्शन बन्धन और मुक्ति को प्रकृति से सम्बन्धित कर नैतिक-जगत् में अपनी वास्तविकवादिता की रक्षा नहीं कर पाया। यदि बन्धन और मुक्ति-दोनों जड़-प्रकृति से होते हैं, तो फिर बन्धन से मुक्ति की ओर प्रयासरूपनैतिकता भीजड़-प्रकृति से ही सम्बन्धित होगी, लेकिन सांख्य नैतिक-चेतना जिस विवेकज्ञान पर अधिष्ठित है, वह जड़-प्रकृति में सम्भव नहीं। विवेकाभाव और विवेकज्ञान-दोनों का सम्बन्ध तो पुरुष से है। यदि पुरुष अविकारी, अपरिणामी और कूटस्थ है, तो उसमें विवेकाभावरूप विकार जड़-प्रकृति के कारण कैसे हो सकता है। कूटस्थ-आत्मवाद आत्मा के विभाव या बन्धन की तर्कसंगत व्याख्या नहीं करता। इस प्रकार, सांख्यदर्शन तार्किक-दृष्टि से अपनी रक्षा करने में असमर्थ रहा।
शांकरवेदान्त में कर्म एवं माया पर्यायवाची हैं। उसमें भीसांख्य के पुरुष के समान आत्मन् या ब्रह्मन् को निर्विकारी एवं निरपेक्ष माना गया है, लेकिन यदि आत्मा निर्विकारी
और निरपेक्ष है, तो फिर बन्धन, मुक्ति और नैतिकता की सारी कहानी अर्थहीन है। इसी कठिनाई को समझकर शांकर-वेदान्त ने बन्धन और मुक्ति को मात्र व्यवहारदृष्टि से स्वीकार किया। गीताका दृष्टिकोण
सैद्धान्तिक-दृष्टि से गीता सांख्यदर्शन से प्रभावित है और बन्धन को मात्र जड़ प्रकृति से सम्बन्धित मानती है। उसमें आत्मा को अकर्ता ही कहा गया है, लेकिन गीता में जो बन्धन का कारण है, वह पूर्णतया जड़ (भौतिक) नहीं है। जब तक जड़ प्रकृति की उपस्थिति में पुरुष या आत्मा अहंकार से युक्त नहीं होता, तब तक बन्धन नहीं होता। आत्मा का अहंभाव ही वह चैत्तसिक-पक्ष है, जो बन्धन का मूलभूत उपादान है और जड़ प्रकृति उस अहंभाव का निमित्त है। अहंकार के लिए निमित्त के रूप प्रकृति और उपादान के रूप
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