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कर्म - सिद्धान्त
नहीं होता, तो फिर उससे मुक्ति का क्या अर्थ होगा। 14 जैन - मत के अनुसार यदि बन्धन और बन्धन का कारण - दोनों ही समान प्रकृति के हैं, तो उपादान और निमित्त कारण का अन्तर समाप्त हो जाएगा। यदि कषाय आत्मा में स्वतः ही उत्पन्न हो जाते हैं, तो वे उसका स्वभाव
गे और यदि वे आत्मा का स्वभाव हैं, तो उन्हें छोड़ा नहीं जा सकेगा और यदि उन्हें छोड़ना सम्भव नहीं, तो मुक्ति भी सम्भव नहीं होगी। दूसरे, जो स्वभाव है, वह आन्तरिक एवं स्वत: है और यदि स्वभाव में स्वतः बिना किसी बाह्य निमित्त के ही विकार आ सकता है, तो फिर बन्धन में आने की सम्भावना सदैव बनी रहेगी और मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा। यदि पानी में स्वत: ही ऊष्णता उत्पन्न हो जाए, तो शीतलता उसका स्वभाव नहीं हो सकता। आत्मा में भी यदि मनोविकार स्वतः ही उत्पन्न हो सकें, तो वह निर्विकार नहीं रह सकता। जैन-दर्शन यह मानता है कि ऊष्णता के संयोग से जिस प्रकार पानी स्वगुण शीतलता को छोड़ विकारी हो जाता है, वैसे ही आत्मा जड़ कर्म-परमाणुओं के संयोग से ही विकारी बनता है । कषायादि भाव आत्मा की विभावावस्था के सूचक हैं, वे स्वत: ही विभाव के कारण नहीं हो सकते। विभाव स्वतः प्रसूत नहीं होता, उसका कोई बाह्य - निमित्त अवश्य होना चाहिए। जैसे पानी को शीतलता की स्वभाव - दशा से ऊष्णता की विभावदशा में परिवर्तित होने के लिए स्वस्वभाव से भिन्न अग्नि का संयोग (बाह्य-निमित्त) आवश्यक है, वैसे ही आत्मा को ज्ञान - दर्शन रूप स्वस्वभाव का परित्याग कर कषायरूप विभावदशा को ग्रहण करने के लिए बाह्य निमित्त रूप कर्म-पुद्गलों का होना आवश्यक है। जैन-विचारकों के अनुसार जड़ कर्म - परमाणु और चेतन आत्मा के पारस्परिक सम्बन्ध के बिना विभावदशा या बन्धन कथमपि सम्भव नहीं ।
बौद्ध-विचार यह भी मानते हैं कि अमूर्त चैत्तसिक-तत्त्व ही अमूर्त-चेतना को प्रभावित करते हैं । मूर्त जड़ (रूप) अमूर्त चेतन (नाम) को प्रभावित नहीं करता, लेकिन इस आधार पर जड़-चेतनमय जगत् या बौद्ध - परिभाषा में नाम-रूपात्मक जगत् की व्याख्या संभव नहीं है। यदि चैत्तसिक-तत्त्वों और भौतिक-तत्त्वों के मध्य कोई कारणात्मक-सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया जाता है, तो उनके सम्बन्धों से उत्पन्न इस जगत् की तार्किक - व्याख्या सम्भव नहीं होगी। विज्ञानवादी बौद्धों ने इसी कठिनाई से बचने के लिए भौतिक जगत् (रूप) का निरसन किया, लेकिन यह तो वास्तविकता से मुँह मोड़ना ही था। बौद्ध दर्शन कर्म या बन्धन के मात्र चैत्तसिक-पक्ष को ही स्वीकार करता है, लेकिन थोड़ी अधिक गहराई से विचार करने पर दिखाई देता है कि बौद्ध दर्शन में भी दोनों पक्ष मिलते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद में विज्ञान (चेतना) तथा नाम-रूप के मध्य कारण-सम्बन्ध स्वीकार किया गया है। मिलिन्दप्रश्न में तो स्पष्टरूप से कहा गया है कि नाम (चेतन-पक्ष) और रूप (भौतिक-पक्ष)
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