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________________ कर्म-सिद्धान्त 341 अर्थ लिए जाते हैं। कर्म में क्रिया का उद्देश्य, क्रिया और उसके फलविपाक तक के सारे तथ्य सन्निहित हैं। आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं, केवल चेतना (आशय) और कर्म ही सकल कर्म नहीं हैं। (उसमें) कर्म के परिणाम का भी विचार करना होगा।'27 जैन-दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ सामान्यतया, क्रिया को कर्म कहा जाता है; क्रियाएँ तीन प्रकार की हैं- 1. शारीरिक, 2. मानसिक और 3. वाचिक। शास्त्रीय-भाषा में इन्हें 'योग' कहा गया है। जैन-परम्परा में कर्म का यह क्रियापरक अर्थकर्मशब्द की एक आंशिक व्याख्याही प्रस्तुत करता है। उसमें क्रिया के हेतु पर भी विचार किया गया है। आचार्य देवेन्द्रसूरि कर्म की परिभाषा में लिखते हैं, जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है। पं. सुखलालजी कहते हैं कि मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वही कर्म कहलाता है। इस प्रकार, वे कर्महेतु और क्रिया-दोनों को ही कर्म के अन्तर्गत ले जाते हैं। जैन-परम्परा में कर्म के दो पक्ष हैं- (1) राग-द्वेष, कषाय आदि मनोभाव और (2) कर्मपुद्गल। कर्मपुद्गल क्रिया का हेतु है और रागद्वेषादि क्रिया है।कर्मपुद्गल से तात्पर्य उन जड़ परमाणुओं (शरीर-रासायनिक-तत्त्वों) से, जो प्राणी की क्रिया के कारण आत्मा की ओर आकर्षित होकर, उससे अपना सम्बन्ध स्थापित कर कर्म-शरीर की रचना करते हैं और समय-विशेष के पकने पर अपने फल (विपाक) के रूप में विशेष प्रकार की अनुभूतियाँ उत्पन्न कर अलग हो जाते हैं। इन्हें द्रव्य-कर्म कहते हैं। संक्षेप में, जैन-विचार में कर्म का तात्पर्य आत्मशक्ति को प्रभावित और कुंठित करने वाले तत्त्व से है। ___सभी आस्तिक-दर्शनों ने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया है, जो आत्मा या चेतना की शुद्धता को प्रभावित करती है। बैन-दर्शन उसे 'कर्म' कहता है। वही सत्ता वेदान्त में माया या अविद्या, सांख्य में प्रकृति, न्यायदर्शन में अदृष्ट और मीमांसा में अपूर्व के नाम से कही गई है। बौद्ध-दर्शन में वही कर्म के साथ-साथ अविद्या, संस्कार और वासना के नाम से जानी जाती है। न्यायदर्शन में अदृष्ट और संस्कार तथा वैशेषिक-दर्शन के धर्माधर्म भी जैन-दर्शन के कर्म के समानार्थक हैं। सांख्यदर्शन में प्रकृति (त्रिगुणात्मक सत्ता) और योगदर्शन में आशय शब्दभी इसी अर्थको अभिव्यक्त करते हैं। शैव-दर्शन का 'पाश' शब्द भी जैन-दर्शन के कर्म का समानार्थक है। यद्यपि उपर्युक्त शब्द कर्म के पर्यायवाची कहे जा सकते हैं; फिर भी प्रत्येक शब्द अपने गहन विश्लेषण में एक-दूसरे से पृथक् अर्थ की अभिव्यंजना भी करता है। फिर भी सभी विचारणाओं में यह समानता है कि सभी कर्मसंस्कार को आत्मा का बन्धन या दुःख का कारण स्वीकार करते हैं। जैन-धर्म दो प्रकार के . : मानना है- 1. निमित्त-कारण और 2. उपादान-कारण। कर्म-सिद्धान्त में कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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