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________________ 340 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन गीता में कर्म शब्द केवल यज्ञ-याग एवं स्मार्त कर्म के ही संकुचित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है, वरन् सभी प्रकार के क्रिया-व्यापारों के व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मनुष्य जो कुछ भी करता है, जो भी कुछ नहीं करने का मानसिक-संकल्प या आग्रह रखता है, वे सभी कायिक एवं मानसिक-प्रवृत्तियाँ भगवद्गीता के अनुसार कर्म ही हैं।24 बौद्ध-दर्शन में कर्म का अर्थ ___ बौद्ध-विचारकों ने भी कर्म शब्द का प्रयोग क्रिया के अर्थ में किया है। वहाँ भी शारीरिक, वाचिक और मानसिक-क्रियाओं को कर्म कहा गया है, जो अपनी नैतिक शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार कुशल कर्म अथवा अकुशल कर्म कहे जाते हैं। बौद्ध-दर्शन में यद्यपि शारीरिक, वाचिक और मानसिक-इन तीनों प्रकार की क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, फिर भी वहाँ केवल चेतना को प्रमुखता दी गई है और चेतना को ही कर्म कहा गया है। बुद्ध ने कहा है, 'चेतना ही भिक्षुओं कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ, चेतना के द्वारा ही कर्म को करता है काया से, वाणी से या मन से।' यहाँ पर चेतना को कर्म कहने का आशय केवल यही है कि चेतना के होने पर ही ये समस्त क्रियाएँ सम्भव हैं। बौद्ध-दर्शन में चेतना को ही कर्म कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे कर्मों का निरसन किया गया है। उसमें कर्म के सभी पक्षों का सापेक्ष महत्व स्वीकार किया गया है। आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से तीनों प्रकार के कर्मों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि से कायकर्म ही प्रधान है, क्योंकि मनकर्म और वाचाकर्म भी काया पर ही आश्रित हैं। स्वभाव की दृष्टि से वाक्कर्म ही प्रधान है, क्योंकि काय और मन स्वभावत: कर्म नहीं हैं, कर्म उनका स्वस्वभाव नहीं है। यदि समुत्थान (आरम्भ) की दृष्टि से विचार करें, तो मनकर्म ही प्रधान है, क्योंकि सभी कर्मों का आरम्भ मन से है। बौद्ध-दर्शन में समुत्थान-कारण को प्रमुखता देकर ही यह कहा गया है कि चेतना ही कर्म है, साथ ही इसी आधार पर कर्मों का एक द्विविध वर्गीकरण किया गया है- 1. चेतना-कर्म और 2. चेतयित्वा-कर्म । चेतना मानस-कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के कारण शेष दोनों वाचिक और कायिक-कर्म चेतयित्वाकर्म कहे गए हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि यद्यपि कर्म शब्द क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है, लेकिन कर्म-सिद्धान्त में कर्म शब्द का अर्थ क्रिया से अधिक विस्तृत है। वहाँ पर कर्म शब्द में शारीरिक, मानसिक और वाचिक-क्रिया, उस क्रिया का विशुद्ध चेतना पर पड़ने वाला प्रभाव एवं इस प्रभाव के फलस्वरूप भावी क्रियाओं का निर्धारण और उन भावी क्रियाओं के कारण उत्पन्न होने वाली अनुभूति, सभी समाविष्ट हो जाती हैं। साधारण रूप में कर्म शब्द से क्रिया, क्रिया का उद्देश्य और उसका फलविपाक-तीनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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