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कर्म-सिद्धान्त
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नियति का तत्त्व भी प्रविष्ट है। कर्म के निमित्त कारण के रूप में कर्मपरमाणुओं को स्थान देकर कर्म-सिद्धान्त भौतिक तत्त्व के मूल्य को भी स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार, कर्म-सिद्धान्त में व्यक्ति की कर्म की चयनात्मक-स्वतन्त्रता को स्वीकार कर यदृच्छावादी-धारणा को भी स्थान दिया गया है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति स्वयं ही अपना निर्माता, नियन्ता और स्वामी है। इस रूप में वह स्वयं ही ईश्वरभी है। इस प्रकार, जैन-दर्शन अनेक एकांगीधारणाओं के समुचित समन्वय के आधार पर अपना कर्म-सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। 6. जैन-दर्शन का समन्वयवादी-दृष्टिकोण
जैन-आचार्यों ने काल, स्वभाव आदि सम्बन्धी विभिन्न कारकों और पुरुषार्थ के समन्वय में आचारदर्शन के एक सच्चे सिद्धान्तकीखोज करने का प्रयास किया है। आचार्य सिद्धसेन का कहना है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और पुरुषार्थ परस्पर निरपेक्ष रूप में कार्य की व्याख्या करने में अयथार्थ बन जाते हैं, जबकि यही सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष रूप में समन्वित होकर कार्य की व्याख्या करने में सफल हो जाते हैं। गीताके द्वाराजैन-दृष्टिकोण का समर्थन
गीता में जैन-दर्शन के इस समन्वयवादी-दृष्टिकोण का समर्थन प्राप्त होता है। गीता कहती है कि मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो भी उचित और अनुचित कर्म करता है, उसके कारण के रूप में अधिष्ठान, कर्ता, इन्द्रियाँ, विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ और दैव, यह पाँचों ही कारण होते हैं।
वस्तुतः, मानवीय-व्यवहार की प्रेरणा एवं आचरण के रूप में विभिन्न नियतिवादी- तत्त्व और मनुष्य का पुरुषार्थ, दोनों ही कार्य करते हैं। इन दोनों के समन्वय के द्वारा ही नैतिक-उत्तरदायित्व एवं नैतिक-जीवन के प्रेरक की सफल व्याख्या की जा सकती है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि कर्म-सिद्धान्त हमें एक ऐसा प्रत्यय देता है, जिसमें विभिन्न कारकों का सुन्दर समन्वय खोजा जा सकता है और जो नैतिकता के लिए सम्यक् जीवनदृष्टि प्रदान करता है। 7. 'कर्म' शब्द का अर्थ
'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं। साधारणत:, 'कर्म' शब्द का अर्थ 'क्रिया' है, प्रत्येक प्रकार की हलचल, चाहे वह मानसिक हो, अथवा शारीरिक, क्रिया कही जाती है। गीता में कर्मशब्द का अर्थ
मीमांसादर्शन में कर्म का तात्पर्य यज्ञ-याग आदि क्रियाओं से है, जबकि गीता वर्णाश्रम के अनुसार किए जाने वाले स्मार्त-कार्यों को भी कर्म कहती है। तिलक के अनुसार
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