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________________ कर्म-सिद्धान्त 333 ईर्यापथिक-बन्ध और मात्र प्रदेशोदय का जो विचार प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर यह मतभेद महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है। जहाँ तक कर्मों का कर्ता और भोक्ता वही आत्मा होता है, इस मान्यताका सम्बन्ध है, गीता और जैन-दर्शन की दृष्टि से जो आत्मा कर्मों का कर्त्ता है, वही उनके कर्मफलों का भोक्ता है। भगवतीसूत्र में महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि आत्मा स्वकृत सुख-दुःख का भोग करता है, परकृत सुख-दु:ख का भोग नहीं करता। बुद्ध के सामने भी जब यही प्रश्न उपस्थित किया गया कि आत्मा स्वकृत सुख-दुःख का भोग करता है, या परकृत सुख-दुःख का भोग करता है, तो बुद्ध ने महावीर से भिन्न उत्तर दिया और कहा कि प्राणी या आत्मा के सुख-दुःख न तो स्वीकृत हैं, न परकृत।' बुद्ध को स्वकृत मानने में शाश्वतवादका और परकृत मानने में उच्छेदवाद का दोष दिखाई दिया, अत: उन्होंने मात्र विपाक-परम्परा को ही स्वीकार किया। जहाँ तक कर्म-विपाक-परम्परा के प्रवाह को अनादि मानने का प्रश्न है, तीनों ही आचारदर्शन समान रूप से उसे अनादि मानते हैं। संक्षेप में इन आधारभूत मान्यताओं के फलितार्थ निम्नलिखित हैं 1. व्यक्ति का वर्तमान व्यक्तित्व उसके पूर्ववर्ती व्यक्तित्व (चरित्र) का परिणाम है और यही वर्तमान व्यक्तित्व (चरित्र) उसके भावी व्यक्तित्व का निर्माता है। 2. नैतिक-दृष्टि से शुभाशुभ जो क्रियाएँ व्यक्ति ने की हैं, वही उनके परिणामों का भोक्ता भी है। यदि वह उन सब परिणामों को इस जीवन में नहीं भोग पाता है, तो वह उन परिणामों को भोगने के लिए भावी जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार, कर्म-सिद्धान्त से पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी फलित होता है। ___3. साथ ही, इन परिणामों के भोग के लिए इस शरीर को छोड़ने के पश्चात् दूसरा शरीर ग्रहण करने वाला कोई स्थायी तत्त्व भी होना चाहिए। इस प्रकार, नैतिक-कृत्यों के अनिवार्य फलभोग के साथ आत्मा की अमरता का सिद्धान्त जुड़ जाता है। यदि कर्मसिद्धान्त की मान्यता के साथ आत्मा की अमरता स्वीकार नहीं की जाती है, तो जैनविचारकों की दृष्टि में कृतप्रणाश और अकृतभोग के दोष उपस्थित होते हैं। उनकी दृष्टि में आत्मा की अमरता या नित्यता की धारणा के अभाव में कर्म-सिद्धान्त काफी निर्बल पड़ जाता है। इस प्रकार, आत्मा की अमरता की धारणा कर्म-सिद्धान्त की अनिवार्य फलश्रुति है। 4. कर्म-सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि आचार के क्षेत्र में शुभ और अशुभऐसी दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं, साथ ही शुभप्रवृत्ति का फलशुभ और अशुभप्रवृत्ति का फल अशुभ होता है। 5. कर्म-सिद्धान्त चेतन आत्म-तत्त्व को प्रभावित करने वाली प्रत्येक घटना एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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