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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
किसी नियम के अधीन है। डॉ. आर.एस. नवलक्खा का कथन है कि यदि कार्यकारणसिद्धान्त जागतिक तथ्यों की व्याख्या को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है, तो फिर उसका नैतिकता के क्षेत्र में प्रयोग करना न्यायिक क्यों नहीं होगा।' मैक्समूलर ने भी लिखा है कि यह विश्वास कि कोई भी अच्छा या बुरा कर्म (बिना फल दिए) समाप्त नहीं होता, नैतिक-जगत् का ठीक वैसा ही विश्वास है, जैसा कि भौतिक-जगत् में ऊर्जा की अविनाशिता के नियम का विश्वास है।' कर्म-सिद्धान्त और कार्यकारण-सिद्धान्त में साम्य होते हुए भी उनके विषयों की प्रकृति के कारण दोनों में जो मौलिक अन्तर है, उसे ध्यान में रखना चाहिए। भौतिक-जगत् में कार्यकारण-सिद्धान्त का विषय जड़ पदार्थ होते हैं, अत: उसमें जितनी नियतता होती है, वैसी नियतता प्राणीजगत् में लागू होने वाले कर्मसिद्धान्त में नहीं हो सकती। यही कारण है कि कर्म-सिद्धान्त में नियतता और स्वतन्त्रताका समुचित संयोग होता है।
उपयोगिता के तर्क (प्रेरमेटिक लॉजिक) की दृष्टि से भी यह धारणा आवश्यक और औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है कि हम आचारदर्शन में एक ऐसे सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना करें, जो नैतिक-कृत्यों के अनिवार्य फल के आधार पर उनके पूर्ववर्ती और अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या भी कर सके तथा प्राणियों को शुभ की ओर प्रवृत्त और अशुभसे विमुख करे।
भारतीय-चिन्तकों ने कर्म-सिद्धान्त की स्थापना के द्वारा न केवल नैतिक-क्रियाओं के फल की अनिवार्यता प्रकट की, वरन उनके पूर्ववर्ती कारणों एवं अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या भी की, साथ ही सृष्टि के वैषम्य का सुन्दरतम समाधान भी किया। 2. कर्म-सिद्धान्त की मौलिक स्वीकृतियाँ और फलितार्थ
कर्म-सिद्धान्त की प्रथम मान्यता यह है कि प्रत्येक क्रिया उसके परिणाम से जुड़ी है। उसका परवर्ती प्रभाव और परिणाम होता है। प्रत्येक नैतिक-क्रिया अनिवार्यतया फलयुक्त होती है, फलशून्य नहीं होती। कर्म-सिद्धान्त की दूसरी मान्यता यह है कि उस परिणाम की अनुभूति वही व्यक्ति करता है, जिसने पूर्ववर्ती क्रिया की है। पूर्ववर्ती क्रियाओं का कर्ता ही उसके परिणाम का भोक्ता होता है। तीसरे, कर्म-सिद्धान्त यह भी मानकर चलता है कि कर्म और उसके विपाक की यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। जब इन तीनों प्रश्नों का विचार करते हैं, तो शुभाशुभ नैतिक-क्रियाओं के फलयुक्त यासविपाक होने के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन एकमत प्रतीत होते हैं। बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों ने निष्कामभाव एवं वीतरागदृष्टि से युक्त आचरण को शुभाशुभ की कोटि से परे अतिनैतिक (A moral) मानकर फलशून्य या अविपाकी माना है। जैनविचारणा ने ऐसे आचरण को फलयुक्त मानते हुए भी उसके फल या विपाक के सम्बन्ध में
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