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________________ कर्म सिद्धान्त ८ersa 10 Rs.22 1. नैतिक- विचारणा में कर्म सिद्धान्त का स्थान सामान्य मनुष्य को नैतिकता के प्रति आस्थावान् बनाए रखने के लिए यह आवश्यक कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति के अनुसार शुभाशुभ फल प्राप्त होने की धारणा में उसका 'विश्वास बना रहे। कोई भी आचारदर्शन इस सिद्धान्त की स्थापना किए बिना जनसाधारण Satara प्रति आस्थावान् बनाए रखने में सफल नहीं होता। 331 कर्म - सिद्धान्त के अनुसार नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले वर्तमानकालिक समस्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक-कर्म भूतकालीन कर्मों से प्रभावित होते हैं और भविष्य के कर्मों पर अपना प्रभाव डालने की क्षमता से युक्त होते हैं । संक्षेप में, वैज्ञानिक- जगत् में तथ्यों एवं घटनाओं की व्याख्या के लिए जो स्थान कार्य-कारण- सिद्धान्त का है, आचारदर्शन के क्षेत्र में वही स्थान 'कर्म सिद्धान्त' का है। प्रोफेसर हरियन्ना के अनुसार, 'कर्म - सिद्धान्त का आशय यही है कि नैतिक जगत् में भी भौतिक जगत् की भाँति, पर्याप्त कारण के बिना कुछ घटित नहीं हो सकता। यह समस्त दुःख का आदि स्रोत हमारे व्यक्तित्व में ही खोजकर ईश्वर और प्रतिवेशी के प्रति कटुता का निवारण करता है ।'' अतीतकालीन जीवन ही वर्त्तमान व्यक्तित्व का विधायक है । जिस प्रकार कोई भी वर्तमान घटना किसी परवर्ती घटना का कारण बनती है, उसी प्रकार हमारा वर्त्तमान आचरण हमारे परवर्ती आचरण एवं चरित्र का कारण बनता है। पाश्चात्य - विचारक ब्रेडले जब यह कहते हैं 'मानव - चरित्र का निर्माण होता है, '1⁄2 तो उनका तात्पर्य यही है कि अतीत के कृत्य ही वर्तमान चरित्र के निर्माता हैं और इसी वर्तमान चरित्र के आधार पर हमारे भावी चरित्र ( व्यक्तित्व) का निर्माण होता है । Jain Education International कर्म - सिद्धान्त कर्म सिद्धान्त की आवश्यकता आचारदर्शन के लिए उतनी ही है, जितनी विज्ञान के लिए कार्यकारण- सिद्धान्त की । विज्ञान कार्यकारण- सिद्धान्त में आस्था प्रकट करके ही आगे बढ़ सकता है और आचारदर्शन कर्म सिद्धान्त के आधार पर ही समाज में सैतिकता के प्रतिष्ठा जाग्रत कर सकता है। जिस प्रकार कार्यकारण- सिद्धान्त के परित्याग करने पर वैज्ञानिक - गवेषणाएँ निरर्थक हैं, उसी प्रकार कर्म - सिद्धान्त से विहीन आचारदर्शन भी अर्थशून्य होता है। प्रो. वेंकटरमण लिखते हैं कि 'कर्म- सिद्धान्त कार्यकारण- सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचरण के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि जगत् में कुछ भी संयोग अथवा स्वच्छन्दता का परिणाम नहीं है।'' जगत् में सभी कुछ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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