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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता 321 के रूप में वह आत्मनिर्धारणवाद ही सिद्ध होता है, जो बौद्ध-नैतिकता को यदृच्छावाद (हेतुवाद) और नियतिवाद-दोनों के दोषों से बचा लेता है। 10. गीता में नियतिवाद और पुरुषार्थवाद गीता में नियतिवाद (निर्धारणवाद) के तत्त्व- साधारण दृष्टि से देखने परगीता को नियतिवादी-विचारणा के निकट पाया जा सकता है और इसी कारण कुछ पाश्चात्य और भारतीय-विचारकों ने उसे नियतिवादी कहा भी है। गीता की समीक्षा करते हुए प्रो. हिल लिखते हैं कि गीता में संकल्प-स्वातन्त्र्य एक पूर्ण नियतिवादी-विचारधारा के अन्तर्गत कार्य करने वाली चयन की मिथ्या स्वतन्त्रता है। इस प्रकार, हिल के अनुसार गीता नियतिवादी-दृष्टिकोण की समर्थक है। डॉ. भीखनलाल आत्रेय यद्यपि गीता को पूर्णरूपेण नियतिवादी-विचारणा का प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं मानते हैं, तथापि वे गीता में निहित नियतिवादी-तत्त्वों कीओर संकेत करते हुए लिखते हैं, 'देव और पुरुषार्थ की समस्या जैसी ही एक समस्या कई दर्शनों और भगवद्गीताने खड़ी कर दी है। ये शास्त्र पुरुष को कर्मों का कर्त्ता नमानकर प्रकृति को कर्त्ता मानते हैं और कहते हैं कि सब कुछ प्रकृति के गुणों द्वारा हो रहा है। कृष्ण ने अर्जुन से कहा था-यदि वह स्वयं लड़ना नहीं चाहेगा, तो भी प्रकृति उसको लड़ाई में प्रवृत्त कर देगी। प्रकृति और पुरुष के कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की समस्या को गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर और जटिल बना दिया कि ईश्वर अपनी माया से सब प्राणियों को कठपुतली की नाई नचा रहा है।'54 गीता में हमें ऐसे अनेक श्लोक मिल जाते हैं, जिनका नियतिवादपरक अर्थ लगाया जा सकता है। नौवें अध्याय में कहा गया है कि अपनी प्रकृति को वश में रखते हुए मैं इन भूतों के समूह को बार-बार उत्पन्न करता हूँ, जो कि प्रकृति के वश में होने के कारण बिल्कुल बेबस हैं।5 ग्यारहवें अध्याय में कहा गया है, 'मैं लोकों का विनाश करनेवाला काल हैं, जो प्रवृद्ध होकर लोकों के विनाश में लगा है, यह सब परस्पर विरोधी सेना में पंक्तिबद्ध खड़े हुए योद्धा तेरे (कर्म के) बिना भी शेष नहीं रहेंगे- यह सब तो मेरे द्वारा पूर्व में ही मारे जा चुके हैं। हे अर्जुन! तू अब इसका कारण भर बन जा। डॉ. राधाकृष्णन् भी इस श्लोक को टिप्पणी में लिखते हैं कि ईश्वर भवितव्यता की सब बातों का निश्चय करता है और उन्हें नियत करता है- ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक दैवीपूर्व-निर्णयन के सिद्धान्त का समर्थन करता है और व्यक्ति की नितान्त असहायता और क्षुद्रता तथा संकल्प और प्रयत्न कीव्यर्थता की ओर संकेत करता है। इतना ही नहीं, गीताकार व्यक्ति के हाथसे नैतिकविकास की सारी क्षमताओं को भी छीनकर उन्हें परमात्मा के हाथों में देने का प्रयास कर नियतिवादी-धारणा को और अधिक सबल बना देता है। दसवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं, 'मैं सब वस्तुओं का उत्पत्ति-स्थान हूँ, मुझसे सारी सृष्टि चलती है, इस बात को जानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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