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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
नियतिवाद को अवश्य स्वीकृत करता है। वह हेतु और उनके फल के अनिवार्य सम्बन्धको स्पष्ट कर वर्तमान दु:ख का कारण प्रस्तुत करता है।
दुःख का प्रतीक जरा-मरण है। जरा-मरण क्यों होता है ? जाति (जन्म) के कारण। जन्म क्यों होता है ? भव (जन्मदायक कर्म) के कारण। जन्मदायक कर्म क्यों होते हैं ? उपादान (आसक्ति) के कारण। आसक्ति क्यों होती है ? तृष्णा (इच्छा) के कारण। तृष्णा क्यों होती है ? वेदना, अर्थात् अनुभूति के कारण। वेदना क्यों होती है ? विषयों का स्पर्श या सम्पर्क होने के कारण। स्पर्श क्यों होता है ? छ: इन्द्रियों (षडायतन) के रहने के कारण। छ: इन्द्रियां क्यों होती हैं ? नाम-रूप, अर्थात् मन और शरीर के कारण। नाम-रूप क्यों होता है ? इसकी उत्पत्ति के क्षण विज्ञान (चिन्ता) रहने के कारण। विज्ञान क्यों होता है? संस्कार (पूर्वजन्म के अनुभव) के कारण। संस्कार क्यों होते हैं ? अविद्या (पूर्वजन्मकी दु:ख-दशा) के कारण।
यद्यपि इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पादहेतु और फल के अनिवार्य सम्बन्धको अभिव्यक्त अवश्य करता है, लेकिन वह कभी भी यह नहीं कहता कि इस हेतु फल-परम्परा का निरोध नहीं किया जा सकता, वरन् इसके विपरीत वह तो यह कहता है कि इस हेतु फल-परम्परा का निरोध किया जा सकता है। द्वितीय और चतुर्थ आर्य-सत्यकेमध्य निरुध्य और निरोधक का सम्बन्ध माना गया है। अष्टांगिक-मार्ग प्रतीत्यसमुत्पाद के दश निदानों का निम्न रूप में निरोध करता है
निरोधक आर्य अष्टांगिक मार्ग
दश निदान 1.सम्यक् दृष्टि
अविद्या 2. सम्यक् संकल्प
संस्कार 3.सम्यक् वाक्
विज्ञान 4. सम्यक् कर्मान्त
नाम-रूप और षडायतन 5. सम्यक् आजीव
स्पर्श 6. सम्यक् व्यायाम
वेदना 7.सम्यक् स्मृति
तृष्णा और उपादान 8. सम्यक् समाधि
भव और जाति इस प्रकार, सारी हेतु फल-परम्परा की श्रृंखला ही समाप्त की जा सकती है और व्यक्ति निर्वाण-लाभ प्राप्त कर सकता है, साथ ही प्रतीत्यसमुत्पाद का प्रत्येक अंग (धर्म) कोई बाह्य तथ्य नहीं, वरन् व्यक्ति की अपनी ही अवस्थाएँ हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद कर्मसिद्धान्त काही एकरूप है और इसअर्थ में उसमें निर्धारक-तत्त्व बाह्य नहीं, आन्तरिक हैं। कर्मसिद्धान्त
निरुध्य
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