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-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
भारतीय आचार
ज्ञानी लोग विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करते हैं- जो इस प्रकार निरन्तर मेरी उपासना और भक्ति करते हैं, उन्हें मैं बुद्धियोग प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मेरे पास पहुँच जाते हैं।' अठारहवें अध्याय में कहा गया है कि ईश्वर सब प्राणियों के हृदयस्थान में स्थित होकर अपनी माया से उन्हें यन्त्र के रूप में चला रहा है।" इस श्लोक में तो गीताकार-नियतिवादी धारणा के तान्त्रिक - सिद्धान्त को भी प्रतिपादित कर देता है, फिर भी यह मानना कि गीता का नियतिवाद एक अर्द्धयान्त्रिक नियतिवाद है, भ्रान्ति ही होगी । इस विषय पर सम्यक् रूप से विचार करना अपेक्षित है।
क्या गीता नियतिवादी है ? - उपर्युक्त अवतरणों के आधार पर गीता नियतिवाद का ग्रन्थ प्रतीत अवश्य होता है, लेकिन गीता में ही अनेक स्थल ऐसे भी हैं, जो इच्छास्वातन्त्र्य का प्रतिपादन करते हैं। अधिकांश टीकाकार भी गीता को नियतिवादी - ग्रन्थ नहीं मानते। गीता के आद्य व्याख्याकार आचार्य शंकर इसे स्पष्ट कर देते हैं कि गीता में नियतिवादी एवं इच्छास्वातन्त्र्यवादी धारणाओं का सही स्वरूप क्या है। आचार्य शंकर स्वयं यह समस्या उठाते हैं कि यदि सभी जीव प्रकृति के अनुसार ही चेष्टा करते हैं, प्रकृति से रहित कोई नहीं है, तो पुरुष के प्रयत्न की आवश्यकता न रहने से विधिनिषेधदर्शक - शास्त्र ( आचारदर्शन) निरर्थक होगा ? 59 इतना ही नहीं, यदि हम किसी ग्रन्थ के उपसंहार को उसकी सैद्धान्तिकधारणा का निष्कर्ष मानें, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि गीता आत्मस्वातन्त्र्य के सिद्धान्त को ही स्वीकार करती है, क्योंकि अन्त में श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि जैसी तेरी इच्छा हो वैसा कर | ° गीता में नियतिवाद स्वीकार करने के दो ही आधार हैं- ( 1 ) प्रकृति और ( 2 ) ईश्वर । या तो यह माना गया है कि प्राणियों का सारा व्यवहार प्रकृति से नियन्त्रित होता है, या ईश्वर से, लेकिन ईश्वर प्रकृति या माया के माध्यम से ही नियन्त्रित करता है, सीधे रूप में नहीं, अतः यह समझना होगा कि प्रकृति अथवा माया का इस सन्दर्भ
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अर्थ है। आचार्य शंकर इस सन्दर्भ में प्रकृति की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जो पूर्वकृत पुण्य-पाप आदि संस्कार वर्तमान जन्मादि में प्रकट होता है, उसका नाम प्रकृति है, अर्थात् इस प्रकार नैतिकता के सन्दर्भ में प्रकृति या माया का तात्पर्य कर्मसिद्धान्त से है। नैतिक- आचरण के क्षेत्र में गीता की प्रकृति कर्म - प्रकृति ही है, जो भूतकालीन कर्मसंस्कारों से निर्मित होकर वर्त्तमान जीवन-व्यवहार को नियन्त्रित करती है। इस प्रकार, गीता में आचरण के क्षेत्र का नियन्त्रक - तत्त्व स्वयं व्यक्ति से उद्भूत उसकी कर्म-प्रकृति ही सिद्ध होती है। गीता में ईश्वर को जिस रूप से नियामक माना गया है, वह स्वेच्छाचारी नहीं है । वह ईश्वर सभी प्राणियों के प्रति समभाव से युक्त नियमपूर्वक कार्य करनेवाला है, अतः प्राणियों के आचरण का नियामक तत्त्व ईश्वर नहीं, वरन् वह कर्म का नियम है, जिसके अनुसार ही ईश्वर कार्य करता है। ईश्वर तो मात्र कर्म - नियम के अधिष्ठाता के रूप में ही
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