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________________ 314 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन सर्वज्ञ स्वीकार कर लिया गया, जिस अर्थ में जैन-तीर्थंकरों अथवा ईश्वरवादी-दर्शनों में ईश्वर को सर्वज्ञ माना जाता है। सर्वज्ञत्व के इस अर्थ को लेकर कि सर्वज्ञ हस्तामलकवत् सभी जागतिक-पदार्थों की त्रैकालिक-पर्यायों को जानता है, जैन-विद्वानों ने भी काफी ऊहापोह किया है। इतना ही नहीं, सर्वज्ञता की नई परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गईं। कुन्दकुन्द और हरिभद्र का दृष्टिकोण प्राचीन युग में आचार्य कुन्दकुन्द और याकिनीसुनू हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी उपर्युक्त परम्परागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं प्रवचनसार में कहा कि सर्वज्ञ लोकालोक जैसी आत्मेतर वस्तुओं को जानता है, यह व्यवहारनय है, जबकि यह कहना कि सर्वज्ञ स्वआत्मस्वरूप को जानता है, यह परमार्थदृष्टि है। आचार्य हरिभद्र ने भी सर्वज्ञता का सर्वसम्प्रदाय-अविरुद्ध अर्थ किया।42 पं.सुखलालजी का दृष्टिकोण वर्तमान युग के पण्डित सुखलालजी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्मा, जगत् एवं साधनामार्ग सम्बन्धी दार्शनिकज्ञान को ही उस युग में सर्वज्ञत्व माना जाता था, न कि त्रैकालिक-ज्ञान को। जैन-परम्परा का सर्वज्ञत्व सम्बन्धी दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समानभाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है। बुद्ध जब मालुक्यपुत्त नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार आर्यसत्यों के ज्ञान काही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्त्वों के ज्ञान का नहीं, तब वह वास्तविकता की भूमिका पर हैं। उसी भूमिका के साथ महावीरके सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति और अल्पोक्ति नहीं करने वाले सन्त प्रकृति के महावीर द्रव्य-पर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ-परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्व रूप मानते होंगे। जैन और बौद्ध-परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध-विद्वानों ने बुद्ध को त्रैकालिक-ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थापित करने का प्रयत्न किया है, तथापि अनेक असाधारण (प्रतिभासम्पन्न) बौद्ध-विद्वानों ने उनको सीधे-सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है, जबकि जैन-परम्परा में सर्वज्ञ का सीधा-सादा अर्थ भुला दिया जाकर उसके स्थान में तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित एवं प्रतिष्ठित हो गया। जैन-परम्परा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक-शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक-ज्ञान की पूर्णता को ही प्रकट करता है, न कि त्रैकालिक ज्ञान को। 'केवल' शब्द सांख्यदर्शन में भी प्रकृतिपुरुषविवेक के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है और यदि यह शब्द सांख्य-परम्परा से जैन-परम्परा में आया है, यह माना जाए, तो इस आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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