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आत्मा की स्वतन्त्रता
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भी केवलज्ञान का अर्थ दार्शनिक-ज्ञान अथवा तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा न कि त्रैकालिक-ज्ञान। आचारांग का यह वचन जे एणं जाणई से सव्वं जाणई' यही बताता है कि जो एक आत्मस्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है, वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है, न कि त्रैकालिक-सर्वज्ञता। केवलज्ञानी के सम्बन्ध में आगम का यह वचन कि ‘सी जाणइ सी ण जाणई' (भगवतीसूत्र) भी यही बताता है कि केवलज्ञान त्रैकालिक-सर्वज्ञता नहीं है, वरन् आध्यात्मिक या दार्शनिकज्ञान है। डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री का दृष्टिकोण
सर्वज्ञता के स्थान पर प्रयुक्त होने वाला अनन्तज्ञान भी त्रैकालिक-ज्ञान नहीं हो सकता। अनन्त का अर्थ सर्व नहीं माना जा सकता। वस्तुत:, यह शब्द स्तुतिपरक अर्थ में ही आया है. जैसे वर्तमान में भी किसीअसाधारण विद्वान के बारे में कह देते हैं कि उनके ज्ञान का क्या अन्त, उनका ज्ञान तो अथाह है। इसी प्रकार, दूसरा पर्यायवाची शब्द केवलज्ञान आत्म-अनात्म के विवेक या आध्यात्मिक-ज्ञान से सम्बन्धित है। सर्वज्ञता कात्रैकालिक-ज्ञानसम्बन्धी अर्थऔर पुरुषार्थ कीसम्भावना
लेकिन, एक गवेषक विद्यार्थी के लिए यह उचित नहीं होगा कि परम्परासिद्ध त्रैकालिक-सर्वज्ञताकीधारणा की अवहेलना कर दी जाए। न केवलजैन-परम्परा में, वरन् बौद्ध और वेदान्त की परम्परा में भी सर्वज्ञता का त्रैकालिक-ज्ञानपरक अर्थ स्वीकृत रहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहकर कि उन अनेक जन्मों को मैं जानता हूँ, तू नहीं, अपनी सर्वज्ञता का ही निर्देश किया है। यह प्रश्न शंका की दृष्टि से देखा जा सकता है कि महावीर, बुद्ध और कृष्ण सर्वज्ञथे या नहीं; अथवा किसी व्यक्ति को ऐसा त्रैकालिक-ज्ञान हो सकता है या नहीं, फिर भी त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञ की कल्पना तर्कविरुद्ध नहीं कही जा सकती। देश और काल की सीमाओं से ऊपर उठकर त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञ की धारणा सिद्ध हो जाती है। प्रबुद्ध वैज्ञानिक एवं सापेक्षवाद के प्रवर्तक आइन्स्टीन ने निरपेक्ष-दष्टा की परिकल्पना को स्वीकार किया था।46 कोई त्रिकालज्ञ-सर्वज्ञ अस्तित्व में है या था, यह चाहे सत्य न हो, लेकिन कोई त्रिकालज्ञ-सर्वत्र हो सकता है, यह तार्किक सत्य अवश्य है, क्योंकि यदि जगत् एक नियमबद्ध व्यवस्था है, तो उस व्यवस्था के ज्ञान के साथ ही ठीक वैसे ही त्रैकालिक-घटनाओं के ज्ञान की सम्भावना स्पष्ट हो जाती है, जैसे एक ज्योतिषी को नक्षत्र-विज्ञान के नियमों के ज्ञान के आधार परभूत, भविष्य और वर्तमान के सभी सूर्य एवं चन्द्र-ग्रहणों की घटनाओं का त्रैकालिक-ज्ञान हो जाता है। यदि सर्वज्ञ आत्म-द्रव्य की सभी पर्यायों को जानता है, तो हमें आत्मा की सभी पर्यायों को नियत भी मानना होगा। यह मान्यता स्पष्ट रूप से निर्धारणवाद की दिशा में ले जाती है। यद्यपि नियतिवाद और जैन
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