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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को स्वीकार कर लें, तो भी दूसरे अन्य प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम तो यह कि सब भावों को अनियत मानने पर यदृच्छावाद (संयोगवाद) के दोष आ जाएंगे और कार्यकारण- सिद्धान्त या हेतुवाद को अस्वीकृत कर संयोगवाद मानना पड़ेगा, जिसमें नैतिकउत्तरदायित्व के लिए कोई स्थान नहीं होगा, क्योंकि यदि हमारे कार्य संयोग का परिणाम हैं, तो हम उसके लिए उत्तरदायी नहीं हो सकते। दूसरे, अनियत भावों की संगति कर्म सिद्धान्त से भी नहीं बैठती। यदि सभी भाव अनियत हैं, तो फिर शुभाशुभ कृत्यों का शुभाशुभ फलों अनिवार्य सम्बन्ध नहीं माना जाएगा, तो फिर व्यक्ति की सारी नैतिक आस्था ही डगमगा जाएगी। तीसरे, अनियतता का अर्थ कारणता या हेतु का अभाव भी नहीं होता । कारणता के प्रत्यय को अस्वीकार करने पर सारा कर्म सिद्धान्त ही ढह जाएगा। कर्मसिद्धान्त नैतिक-जगत् में स्वीकृत कारणता के सिद्धान्त का ही एक रूप है। जैन- विचारणा में कर्म - सिद्धान्त के साथ-साथ त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ की धारणा स्वीकृत रही है। यही दो ऐसे प्रत्यय हैं, जिनके द्वारा नियतिवाद का तत्त्व भी जैन- विचारणा में प्रविष्ट हो जाता है। सर्वज्ञता का प्रत्यय और पुरुषार्थ की सम्भावना जैन- विचार में सर्वज्ञता की धारणा स्वीकृत रही है, लेकिन इसके आधार पर जैन - आचारदर्शन को नियतिवादी कहना इस बात पर निर्भर करता है कि सर्वज्ञता का क्या अर्थ है । 313 सर्वज्ञता का अर्थ जैन - दर्शन सर्वज्ञता को स्वीकार करता है। जैनागमों में अनेक ऐसे स्थल हैं, जिनमें तीर्थकरों एवं केवलज्ञानियों को त्रिकालज्ञ सर्वज्ञ कहा गया है । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, अंतकृत्दशांगसूत्र एवं अन्य जैनागमों में इस त्रिकालज्ञ सर्वज्ञतावादी धारणा के अनुसार गोशालक, श्रेणिक, कृष्ण आदि के भावी जीवन के सम्बन्ध में भविष्यवाणी भी की गई है। यह भी माना गया है कि सर्वज्ञ जिस रूप में घटनाओं का घटित होना जानता है, वे उसी रूप घटित होती हैं। कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जिसकी जिस देश, जिस काल और जिस प्रकार से जन्म अथवा मृत्यु की घटनाओं को सर्वज्ञ ने देखा है, वे उसी देश, उसी काल और उसी प्रकार से होंगी। उसमें इन्द्र या तीर्थंकर कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकता। 40 उत्तरकालीन जैन-ग्रन्थों में इस त्रैकालिक ज्ञान सम्बन्धी सर्वज्ञत्व की धारणा का मात्र विकास ही नहीं हुआ, वरन् उसको तार्किक आधार पर सिद्ध करने का प्रयास भी किया गया है। यद्यपि बुद्ध ने महावीर की त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा का खण्डन करते हुए उसका उपहासात्मक-चित्रण भी किया और अपने सम्बन्ध में त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की इस धारण का निषेध भी किया था, " लेकिन परवर्ती बौद्ध साहित्य में बुद्ध को भी उसी अर्थ में Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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