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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
हमारे संकल्पों के पीछे भी पूर्वकर्म या पूर्वसंस्कार कार्य कर रहे हैं। वस्तुतः, जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है, उसमें स्वतन्त्रता की सम्भावनाएँ हैं और वह पूर्ण स्वतन्त्रता की दिशा में ऊपर उठ सकता है।
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बौद्ध दर्शन प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम को स्वीकार कर यदृच्छावाद के अहेतुवादी या संयोगवादी दृष्टिकोण को अस्वीकार करता है। वह अहेतुवाद को नैतिक दृष्टि से अनुपयोगी मानता है, यद्यपि दूसरी ओर, हेतुवाद को भी अपने एकान्तिक - अर्थ में नैतिक
के लिए अनुपयुक्त मानता है। बुद्ध ने दोनों विचारधाराओं का अतिवाद के रूप में विरोध किया है । वे तो मध्यम-मार्ग का ही अनुसरण करते हैं।
गीता में यदृच्छावाद की कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि गीता यदृच्छावाद के अहेतुवादी पक्ष का समर्थन नहीं करती है। वह कर्त्ता की स्वतन्त्रता को मानते हुए भी कर्म और संकल्प को अहेतुक नहीं मानती ।
वस्तुत:, समालोच्य आचारदर्शन नियतिवाद और यदृच्छावाद का एकान्तिक समर्थन नहीं करते, उनमें दोनों का सापेक्ष स्थान है।
5. जैन - आचारदर्शन में पुरुषार्थ और नियतिवाद महावीर द्वारा पुरुषार्थ का समर्थन
जैन-विचारधारा पुरुषार्थवाद की समर्थक रही है। उपासकदशांगसूत्र में क्रिया, बल (शारीरिक शक्ति), वीर्य (आत्मशक्ति), पुरुषाकार (पौरुष) और पराक्रम को स्वीकार किया गया है। विश्व के समस्त भाव अनियत (अणियया सव्व भावा) माने गए हैं। इस प्रकार, महावीर नियतिवाद या निर्धारणवाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने जीवन भर गोशालक के नियतिवाद का विरोध किया । उपासकदशांग में महावीर ने सकडालपुत्र श्रावक के सम्मुख अनेक युक्तियों से नियतिवाद का निरसन करके पुरुषार्थवाद का समर्थन किया है। 39 जैन- दर्शन में नियतिवाद के तत्त्व
(अ) सर्वज्ञता - यद्यपि उपासकदशांग के आधार पर सम्पूर्ण घटनाक्रम को अनियत मानकर पुरुषार्थवाद की स्थापना तो हो जाती है, लेकिन इस कथन की संगति जैनविचारणा की त्रिकालज्ञ सर्वज्ञता की धारणा के साथ नहीं बैठती है। यदि सर्वज्ञ त्रिकालज्ञ है, तो फिर वह भविष्य को भी जानेगा, लेकिन अनियत भविष्य नहीं जाना जा सकता। यहाँ पर दो ही मार्ग हैं, या तो सर्वज्ञ की त्रिकालज्ञता की धारणा को छोड़कर उसका अर्थ आत्मज्ञान या दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान लिया जाए, अथवा इस धारणा को छोड़ा जाए कि सब भाव अनियत हैं।
(ब) कर्मसिद्धान्त - यदि सर्वज्ञता की त्रिकालज्ञ धारणा से अलग हटकर अनियतता
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