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आत्मा की स्वतन्त्रता
भी वह वरण कर सकता है। इसका प्रबल प्रमाण यह है कि जो लोग उसको भलीभाँति जानते हैं, वे उसके वरण को तब तक ठीक तरह से नहीं बता सकते, जब तक कि उसने वरण न कर लिया हो । उसके वरण की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। अगर कोई भविष्यवाणी कर दे, तो वह अपने वरण से उसको गलत सिद्ध कर देता है। इससे स्पष्ट है कि वरण पूर्णतया समस्त हेतुओं से रहित है, या अहेतुक है।
2. दायित्व की व्याख्या- यदृच्छावादी कहता है कि उत्तरदायित्व की व्याख्या यदृच्छावाद से ही हो सकती है । यदृच्छावादी अपने कर्म के लिए उत्तरदायी है, क्योंकि उस कार्य की भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। यदृच्छावाद को न मानने से व्यक्ति का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है।
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3. परिवर्तनवाद - यदृच्छावादी परिवर्तनवादी है। वह व्यक्तित्व को नित्य या स्थायी नहीं मानता। उसका कहना है कि चरित्र स्थिर नहीं, अपितु अस्थिर है। उसमें किसी भी क्षण आमूल परिवर्तन सम्भव है। वह व्याध से वाल्मीकि अथवा सिद्धार्थ से बुद्ध हो सकता है।
समीक्षा
यदि इच्छा-स्वातन्त्र्य का अर्थ अकारण या अकस्मात् है, तो फिर उत्तरदायित्व का प्रश्नही उपस्थित नहीं होता। जब तक व्यक्ति यह नहीं जान लेता कि वह क्या करने वाला है तब तक उसे नैतिक कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता। यदि इच्छास्वातन्त्र्य का अर्थ पूरी तरह अनियतता एवं भविष्यवाणी की असम्भावना है, तो फिर कर्म का चयन मात्र संयोग (Chance) ही होगा और तब नैतिक- उत्तरदायित्व नहीं आता है। इस प्रकार, यदृच्छावाद नैतिक - उत्तरदायित्व की दृष्टि से असंगत है। भारतीय - आचारदर्शन और यदृच्छावाद
जैन कर्म - सिद्धान्त में यदृच्छा का समुचित मूल्यांकन हुआ है। कर्म सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि यद्यपि व्यक्ति शुभाशुभ क्रियाओं के करने में पूर्व कर्मप्रकृतियों से प्रभावित होता है, फिर भी व्यक्ति में शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के चयन की स्वतन्त्रता रहती है। कर्म - सिद्धान्त व्यक्ति का निर्देशक तो बनता है, लेकिन शासक नहीं। जैन दर्शन में आत्मा की स्वतन्त्रता कर्म - सिद्धान्त की नियामकता पर ही स्वीकृत है।
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कर्मवणाएँ आत्मा की निर्णायक शक्ति का अपहरण नहीं करतीं, यद्यपि कुण्ठित अवश्य करती हैं, और, यदि यदृच्छा का अर्थ नैतिक जीवन में निर्णय की स्वतन्त्रता मानते हैं, तो कह सकते हैं कि जैन कर्म सिद्धान्त में उसका समुचित मूल्यांकन हुआ है, यद्यपि यदृच्छा के संयोगवादी- दृष्टिकोण का समर्थन जैन - परम्परा में नहीं है। जैन- विचारणा के अनुसार जगत् में भौतिक एवं चैत्तसिक दोनों स्तरों पर कारणता का प्रत्यय काम करता है।
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