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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता 309 स्वभाव का भागी बनाता है। ऐसा सिद्धान्त हमारी आत्मा को केवल पूर्ण शान्ति ही प्रदान नहीं करता, बल्कि यह भी बतलाता है कि हमारा निरतिशय सुख, हमारी धन्यता या कृतकृत्यता एक ईश्वर के ज्ञान में है, जिसके द्वारा हमारे कार्य, प्रेम और धर्मनिष्ठा की प्रेरणा. के अनुसार ही होते हैं। 2. यह सिद्धान्त हमें आचरण की उन बातों को निर्धारित मानने की सीख देता है, जो हमारी शक्ति से बाहर हैं। यह हमें दैवी-विधान या भाग्य की अनुकूल या प्रतिकूल स्थिति में भी धैर्य और सहनशीलतापूर्वक मन की साम्यावस्था रखने का पाठ पढ़ाता है। ___3. यह सिद्धान्त हमारे सामाजिक-जीवन को उदात्त बनाता है, क्योंकि यह हमें किसी भी मनुष्य से घृणा, तिरस्कार, उपहास, ईर्ष्या या क्रोध न करना सिखाता है। नियतिवाद की उपयोगिता के सम्बन्ध में जैन-दर्शन का दृष्टिकोण भी यही है। वह अपने सर्वज्ञतावाद एवं कर्मवाद के सिद्धान्त के द्वारा उसीसमत्व-भावना और निष्कामदृष्टि का पाठ पढ़ाता है। वह कहता है कि सर्वज्ञ ने जैसा अपने ज्ञान में देखा है, वैसा ही होता है, अथवा होगा, उसमें तिलमात्र भी परिवर्तन नहीं होता, अत: न तो शोक करना चाहिए और न व्यर्थ की चिन्ता ही करनी चाहिए- 'राई घटे न तिल बढ़े, रह-रह जीव निशंक।' इसी प्रकार, कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार वह कहता है कि सुख-दुःख, आपत्ति और सम्पत्ति, सभी पूर्वकर्म के अधीन हैं, अत: न तो इनके लिए व्याकुलता एवं आसक्ति रखनी चाहिए और न इनके निमित्त बनने वालों के प्रति घृणा, तिरस्कार या क्रोध करना चाहिए। गीता में नियतिवाद का तत्त्व जिस ईश्वरीय-विधान के रूप में प्रतिपादित है, उसके पीछे भी यही निर्देश है कि सभी कुछ ईश्वरीय-इच्छा से संचालित हो रहा है, अत: न तो कर्तृत्व का अभिमान करना चाहिए और न अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में विचलित होना चाहिए, वरन् ईश्वरीय-यन्त्र के रूप में अनासक्त एवं तटस्थ-भाव से आचरण करते रहना चाहिए, उसकी कृपा से ही परम शान्ति प्राप्त होगी।" नियतिवाद के सामान्य दोष नियतिवादके उपर्युक्त लाभ होते हुएभी उसमें नतोनैतिक-प्रगति के लिए मानवीयपुरुषार्थ का कोई महत्व रहता है और न किसी प्रकार के नैतिक-उत्तरदायित्व की स्थापना ही सम्भव होती है और न नैतिक-आदेश ही कोई अर्थ रखता है, जबकि नैतिकता के लिए नैतिक-प्रगति और नैतिक-उत्तरदायित्व अनिवार्य हैं। नैतिक-आदेश की सार्थकता इसी में है कि व्यक्ति में चयन की स्वतन्त्र सम्भावनाओं को स्वीकार किया जाए। व्यक्ति को जो कुछ करना है, वह यदिपूरी तरह निश्चित है, तो यह कहने का क्या अर्थ रह जाता है कि उसे यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए ? इसी प्रकार, नैतिक-प्रगति के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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