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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता 305 से निर्धारित होना स्वीकार नहीं किया, न यह स्वीकार किया कि जो भी कर्म किया जाता है, उस सबका भोग अनिवार्य है, लेकिन आचार्य शंकर गीता की टीका में ऐसी व्याख्या करते हैं, जिससे नियतिवाद को समर्थन मिलता है। वे लिखते हैं कि जीवन के लिए जो कुछ आँख खोलने या मूंदने आदि की चेष्टा की जाती है, वे भी पहले किए हुए पुण्य-पाप का परिणाम हैं। 22 जैन-दर्शन के अनुसार भी व्यक्ति का जीवन और उसका परिवेश, सभी उसके पूर्व कर्मों से निर्धारित होते हैं, लेकिन इन आधारों पर जैन-दर्शन और गीता को इस वर्ग में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि जैन-दर्शन और गीता यह भी मानते हैं कि व्यक्ति केवल कर्म-नियम से शासित होने वाला ही नहीं है, उससे ऊपर भी है। समग्र व्यक्तित्वको कर्म के नियम के अन्तर्गत नहीं बाँधा जा सकता। 5.ईश्वरवाद जबईश्वरवादी-धारणाओं में यह मान लिया जाता है कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है और हमारी वैयक्तिक इच्छाएँ एवं कर्म भी उसकी इच्छा से प्रेरित होते हैं, तो हम पुन: एक बार नियतिवाद की ओर चले जाते हैं। ईश्वरीय या दैवी पूर्वनिर्णयन के इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त शक्ति परमात्मा के हाथों में होती है। व्यक्ति तो नितान्त असहाय, स्वतन्त्र रूपसे संकल्प और प्रयत्न करने में असमर्थ और ईश्वरीय-हाथोंकाएक उपकरणमात्र होता है। जो ईश्वरवादी दर्शन यह स्वीकार कर लेते हैं कि ईश्वरीय-संकल्प ही एकमात्र संकल्प है, व्यक्ति तो उस संकल्पपूर्ति में एक निमित्त-मात्र है, अथवा यह स्वीकार करते हैं कि वैयक्तिक-विकास और मुक्ति ईश्वरीय-चुनाव पर निर्भर है- ईश्वर जिसका विकास करना चाहता है, उसे सन्मार्ग में नियोजित कर देता है, तो वे नियतिवादी-धारणा के शिकार बन जाते हैं। इस विचारधारा के मूल में ईश्वर को सर्वशक्तिसम्पन्न मानने की धारणा है। समालोच्य आचारदर्शनों के पूर्वकाल में यह विचारधारा विद्यमान थी। उपनिषद्-साहित्य में इस विषय के अनेक सन्दर्भ खोजे जासकते हैं। डॉ. आत्रेय के शब्दों में, उपनिषदों में यहाँ तक भी कहा गया है कि जिसको वे (परमात्मा) ऊपर उठाना चाहते हैं, उससे अच्छे कर्म कराते हैं और जिसको नीचे गिराना चाहते हैं, उससे बुरे कर्म कराते हैं। कठोपनिषद् में कहा गया है, जब यह परमात्मा स्वयं चुनता है, तभी यह उसके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ईसाई-धर्म में भी सेण्ट ऑगस्टाइन यही मानते थे कि मनुष्य का उद्धार केवल भगवान् की दया से हो सकता है, यद्यपि पैलेगियस ने उसकी इस धारणा का विरोध किया था और स्वतन्त्र संकल्प की धारणा को स्वीकार किया था। ____गीता में अनेक स्थानों पर इस धारणा का समर्थन मिलता है और यही कारण है कि कई विचारकों ने उसे नियतिवादी-विचारणा के समर्थक ग्रन्थ के रूप में देखा, यद्यपि यह धारणा समुचित नहीं है। इस पर हम अगले पृष्ठों में प्रकाश डालेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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