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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
कारण बन जाता है। प्रत्येक कर्म अपने पूर्ववर्ती कर्म का कार्य होता है और अनुवर्ती कर्म का कारण होता है और इस प्रकार कार्य और परिणाम की यह श्रृंखला स्वत: चलती रहती है। हमारे पूर्ववर्ती जीवन के घटनाक्रम से वर्तमान जीवन के घटनाक्रम का निश्चय होता है और यही घटनाक्रम हमारे भावी जीवन के घटनाक्रम का निश्चय करता है। भूत के कारण हमारे वर्तमान का निश्चय हो चुका होता है और वही वर्तमान हमारे भावी का निश्चय करता है। व्यक्ति अपने वर्तमान में, जो पूर्वभूत से निश्चित है, परिवर्तन नहीं कर सकता और यदि व्यक्ति वर्तमान में परिवर्तन नहीं कर सकता, तो वह अपने भावी में भी परिवर्तन नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो उसी अपरिवर्तनीय वर्तमान से उत्पन्न है। यही बात इस प्रकार भी रखी जा सकती है कि हमारे पूर्व निर्मित चरित्र के आधार पर वर्तमान के कर्म निःसृत होते हैं,
जो स्वयं हमारे भावी चरित्र का निर्माण करते हैं। इस प्रकार, हमारे चरित्र का प्रवाह भूत से भविष्य की ओर बहता रहता है, व्यक्ति उसमें स्वेच्छा से कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। इस प्रकार, भाग्यवाद कारणता के प्रत्यय को स्वीकार कर जब व्यक्ति में वर्तमान में परिवर्तन करने की क्षमता को स्वीकार नहीं करता, तब वह नियतिवाद बन जाता है। समीक्षा
__ भाग्यवाद यह तो स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है, लेकिन जब वह कार्य-कारणता की कठोर व्याख्या के आधार पर यह भी मान लेता है कि व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माण कर लेने पर उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता, तब वह नियतिवाद बन जाता है। यदि हम यह मान लें कि हम अपने भविष्य को बना सकते हैं, लेकिन उसके साथ ही यह भी स्वीकार कर लें कि हम अपने वर्तमान में, जो हमारे भूत का परिणाम है, कोई परिवर्तन नहीं कर सकते, तो हम अपने भावी के निर्माता भी नहीं रहते। पूर्व निर्धारणवादी-नियतिवाद सर्वकालों के लिए व्यक्ति के हाथ से जीवननिर्माण की शक्ति छीन लेता है, जबकि भाग्यवाद कहता है कि भूत तुम्हारा था, भविष्य भी तुम्हारा है; लेकिन वर्तमान तुम्हारे भूत के अधिकार में है, तुम उसमें स्वेच्छया कुछ नहीं कर सकते, लेकिनभूत और भावी को अपने हाथ में मान लेने पर भी यदि वर्तमान हमारे अधिकार में नहीं है, तोभूत
और भावी भी वस्तुत: हमारे अधिकार में नहीं हैं और इस प्रकार नैतिक और आध्यात्मिक विकास की सम्भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। भाग्यवाद कर्मसिद्धान्त को तो स्वीकार करता है, लेकिन उसे इतना कठोर बना देता है कि उसमें पुरुषार्थवादी-कर्मसिद्धांत नियतिवाद बन जाता है। भारतीय-कर्मसिद्धान्त की कठोर व्याख्या स्वयं एक नियतिवादी निष्कर्ष की ओर ले जाती है। यदि हम यह मान लेते हैं कि हमारे वर्तमान आचरण की छोटी-बड़ी सभी क्रियाएँ पूर्व कर्मों का फल होती हैं, तो फिरभावी चरित्र के निर्माण के लिए हमारे पास कुछ नहीं रह जाता। यही कारण है कि बुद्ध ने वर्तमानकालिक-क्रियाओं को समग्ररूपेण पूर्वकर्म
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