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आत्मा की स्वतन्त्रता
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अर्थ आत्मा के स्वगुण को प्रकट करना ही है। जैन-कर्मसिद्धान्त में भीस्वभाव का महत्वपूर्ण स्थान है। कर्मसिद्धान्त यह बताता है कि मूल स्वभाव का अवरोध हो जाना ही बन्धन (कर्मावरण) है और कर्मावरण का अलग हट जाना और मूल का स्वभाव प्रकट हो जाना ही मुक्ति है। कर्मसिद्धान्त यह भी मानकर चलता है कि नैतिक-जीवन केवल स्वभावको ही प्रकट करता है। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि गुण आत्मा का स्वभाव हैं, तभी तो नैतिक-साधना के द्वारा उन्हें प्रकट किया जा सकता है। इतना ही नहीं, वहाँ तो नैतिकजीवन या सम्यक्चारित्र भी आत्मा का लक्षण माना गया है, क्योंकि तभी तो उसे अपनाया जा सकता है।
__ जैन-दर्शन का विरोध स्वभाववादसे नहीं है, बल्कि स्वभाववादके एकांगी दृष्टिकोण से है। मात्र स्वभाववाद के आधार पर नैतिक-जीवन की व्याख्या सम्भव नहीं। स्वभावका नैतिक-जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन उसे नैतिक-जीवन का सबकुछ मानना भ्रान्ति होगी। जैन-दार्शनिकों के अनुसार नैतिकता विभाव से स्वभाव की ओर प्रयाण है और स्वस्वभाव में स्थित रहना ही नैतिक-पूर्णता है। गीता जब स्वधर्मे निधनं श्रेयः' का उद्घोष करती है, तो यही कहती है, लेकिन स्वभाववादमात्र स्वभाव की व्याख्या करता है, विभाव (विकृति) की नहीं और इसलिए यह नैतिक-दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुए भी अपूर्ण है। यह अपूर्णता उसके कर्मसिद्धान्त के विरोधी होने में है। स्वभाववाद यदि कर्मसिद्धान्त और वैयक्तिक-स्वतन्त्रताका एकान्त विरोधी बनता है, तभी उसका नैतिक-मूल्य समाप्त होता है, लेकिन स्वभाववाद कर्मसिद्धान्त का विरोधी नहीं है। महाभारत में स्पष्ट कहा है कि समस्त कर्म अपने स्वभाव को सूचित करते हैं। स्वभाव और कुछ नहीं, पूर्व कर्मों के द्वारा निर्धारित आदत है, वह पूर्व चरित्र से निर्मित वर्तमान चरित्र है और इस अर्थ में नैतिकता का एक महत्वपूर्ण अंग भी है। जैन-कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में व्यक्ति की पूर्वबद्ध कर्मप्रकृतियाँ ही उसका स्वभाव है, जिससे वह निर्धारित होता है, लेकिन यह कर्मप्रकृति आत्मा का स्वलक्षण नहीं है, एक आरोपित अवस्था है। 4.भाग्यवाद
भवितव्यतावाद निर्धारण के किसी कारण को प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं समझता। उसके अनुसार, सभी घटनाएँ पूर्वनियत हैं, उनका कोई कारण या हेतु नहीं है। जिस समय में जो जैसा होना है, वह वैसा ही होगा, उसका कोई कारण नहीं दिया जा सकता। इसके विपरीत, भाग्यवाद कारणता के प्रत्यय को स्वीकार कर कर्मसिद्धान्त की कठोर व्याख्या के आधार पर अपने नियतिवादी निष्कर्ष को प्रस्तुत करता है। भाग्य पूर्वकर्म ही हैं, जो वर्तमान जीवन का निर्धारण करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक क्रिया या कर्म का फल होता है और वह फल स्वयं में एक क्रिया होता है, जो किसी अनुवर्ती फल का
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