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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
शुभाशुभ प्रवृत्तियों का प्रेरक स्वभाव माना गया है। 15 स्वभाववाद यह मानता है कि सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है, व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। महाभारत में कहा गया है कि सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्त्तित एवं निवर्त्तित होते हैं, पुरुष के प्रयत्न से कुछ नहीं होता । " गीता में कहा गया है कि लोक का प्रवर्त्तन स्वभाव से ही हो रहा है । 17
स्वभाववाद का नैतिक योगदान
स्वभाववाद का नैतिक योगदान दो रूपों में है- एक तो स्वभाववाद आदत के रूप में हमारे चरित्र की व्याख्या प्रस्तुत करता है, वह नैतिक जीवन में आदत या स्वभाव का महत्व स्पष्ट करता है। दूसरे, स्वभाववाद कर्तृत्वभाव एवं अभिमान के दोषों से बचा लेता है तथा दुर्जनों पर भी करुणा-भाव रखने का सन्देश देता है। यदि सभी शुभाशुभ प्रवृत्ति स्वभाव से ही होती है, तो अपनी श्रेष्ठता का अभिमान एवं कर्तृत्व-भाव भी वृथा होगा । " दूसरे, यदि दुर्जन की दुर्जनता भी स्वभाव के कारण है, तो वह हमारे क्रोध का नहीं, वरन् दया का पात्र होना चाहिए। इस प्रकार, स्वभाववादी शुभाशुभ स्थितियों में किसी को दोषी नहीं मानते हुए समभाव का पाठ पढ़ाता है।
समीक्षा
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स्वभाववाद जागतिक - वैचित्र्य की व्याख्या कर सकता है, लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में वह पूर्णतया तर्कसंगत सिद्ध नहीं होता, क्योंकि स्वभाववाद मानने पर नैतिकउत्तरदायित्व की समस्या उत्पन्न होगी। दूसरे, स्वभाववाद नैतिक जीवन में पुरुषार्थ की अवहेलना करेगा और पुरुषार्थ के अभाव में नैतिक प्रगति एवं नैतिक - आदेश का कोई अर्थ नहीं रहेगा। तीसरे, यदि स्वभाववाद यह मानता है कि स्वभाव निर्मित होता है, तो वह निरपेक्ष- सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता और फिर स्वभाव किस कारण बनता है - यह प्रश्न भी तो महत्वपूर्ण होगा। चौथे, स्वभाववाद यदि यह मान लेता है कि सब कुछ 'स्वभाव' से होता है, तो आत्मा में विभाव मानना उचित नहीं होगा और अनैतिक- आचरण, असद्प्रवृत्ति, ज्ञान-शक्ति की सीमितता आदि के कारण क्या हैं, यह बताना कठिन होगा। पाँचवें, सदाचरण और दुराचरण यदि स्वभावजन्य हैं, तो फिर दुराचारी कभी भी सदाचारी न हो सकेगा और इस प्रकार नैतिक विकास अथवा मुक्ति का कोई भी अर्थ नहीं रहेगा। स्वभाववाद का जैन दर्शन में स्थान
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लेकिन, उपर्युक्त आलोचनाओं का यह अर्थ नहीं है कि स्वभाववाद का कोई स्थान ही नहीं है। जैन-दर्शन में स्वभाव का मूल्य स्वीकृत है। भौतिक जगत् में तो स्वभाव (प्रकृति) का एकछत्र राज्य है ही, लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विकास स्वभाव पर ही निर्भर करता है। नैतिक-लक्ष्य आत्मा के स्वस्वरूप की उपलब्धि और नैतिक-साधना का
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