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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता 301 समीक्षा फिर भी कालवाद का सिद्धान्त मानने पर नैतिकता की व्याख्या सम्भव नहीं, क्योंकि (1) कालवाद में पुरुषार्थ का कोई स्थान नहीं है, वह व्यक्ति को पुरुषार्थहीन मान लेता है, जबकि नैतिक-दृष्टि से व्यक्ति में पुरुषार्थ की सम्भावना मानना अनिवार्य है। (2) काल को ही एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता। यद्यपि यह सही है कि समयमर्यादा के पूर्ण होने पर कच्चा फल पकता है, समय के आने पर ही वृक्ष फल देने में समर्थ होता है, फिर भी समय ही एकमात्र प्रमुख कारण नहीं माना जा सकता। पुरुषार्थ के द्वारा भी कुछ बातें समय पकने के पूर्व ही उपलब्ध की जासकती हैं। आम के एक वृक्ष में यदि सामान्यतयापाँच वर्ष के पश्चात् फल आते हों, तो हम अपने प्रयास, जल और खाद के द्वारा एक-दो वर्ष पूर्व ही फल प्राप्त कर सकते हैं। कालवाद के एकांगी दृष्टिकोण की आलोचनाशास्त्रवार्तासमुच्चय में भी की गई है। जैन-दर्शन में कालवाद कास्थान जैन-विचारकों ने अपनी तत्त्वमीमांसा में काल को स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकार कर उसे समस्त परिवर्तनों का आधार माना है। उनके अनुसार, वस्तुतत्त्व में परिवर्तनशीलता के गुण का कारण काल है। जैन-कर्मवाद में भी काल का समुचित मूल्यांकन हुआ है। कर्मवाद में प्रत्येक प्रकार की कर्मवर्गणाओं के बन्धन से मुक्ति तक के काल के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार हुआ है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि कर्मवाद में काल पुरुषार्थ के लिए एक सहायक तत्त्व तो बनता है, लेकिन वह पुरुषार्थ का स्थान नहीं ले सकता। दूसरे, कर्मवाद में यह भीमाना गया है कि नियत काल के पहले ही पुरुषार्थ द्वारा कर्मों का फल प्राप्त किया जा सकता है। कर्मसिद्धान्त में उदीरणा' का विधान जैन-दर्शन में कालवाद के ऊपर पुरुषार्थवाद की स्वीकृति को अभिव्यक्त करता है। 3.स्वभाववाद जगत् विविधताओं का पुंज है और स्वभाववाद के अनुसार स्वभाव ही इस विविधता का कारण है। अग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत ही है। आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा, क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है। आचार्य गुणरत्न षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति में तथा आचार नेमिचन्द्र गोम्मटसार में स्वभाववाद की धारणा को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं, 'काँटे की तीक्ष्णता, मृग एवं पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुर्य, नीम में कटुता का कोई कर्ता नहीं है, वे गुण स्वभाव से ही निर्मित होते हैं। नैतिक-जगत् में भी विविधताएँ हैं। एक व्यक्ति सदाचार की ओर प्रवृत्त होता है, दूसरा दुराचार की ओर। आखिर इस विविधता का कारण क्या है ? स्वभाववादियों के अनुसार इसका कारण स्वभाव' ही है। महाभारत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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