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आत्मा की अमरता
रूपात्मक सन्तति-प्रवाह ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है ? वे कहते हैं, राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है, वह तो एक अन्य नामरूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है, वह एक अन्य, किन्तु द्वितीय (नामरूप) प्रथम (नामरूप) में से ही निकलता है, 43 अत: हे महाराज ! धर्म-सन्तति ही संसरण करती है। भगवान् बुद्ध के समय में साति केवट्टपुत्त नामक भिक्षु को यह मिथ्या धारणा उत्पन्न हुई थी कि वही एक विज्ञान आवागमन करता है। इस पर भगवान् ने उसे समझाया था कि विज्ञान तो प्रतीत्यसमुत्पन्न है। वह तो भौतिक पदार्थों की अपेक्षा भी अधिक क्षणिक है। वह शाश्वत रूप से संसरण करनेवाला नहीं हो सकता। वस्तुस्थिति यह है कि एक जन्म के अन्तिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है। इस कारण, न तो वही जीव रहता है और न दूसरा ही हो जाता है। 44
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बौद्ध दर्शन अनेक चित्तधाराओं को स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि क, क1, 2, 3, 4 एक चित्तधारा है और ख, ख1, ख2, ख3, ख4 दूसरी चित्तधारा है। यद्यपि क 1, 2, 3, एक-दूसरे से अभिन्न नहीं हैं और ख1, ख2, ख3 भी एक-दूसरे से अभिन्न नहीं हैं, तथापि इनमें से प्रत्येक आत्मसन्तान के सदस्यों के बीच जो बन्धुता है, वह एक आत्मसन्तान के एक सदस्य और दूसरी आत्मसन्तान के सदस्य, अर्थात् क या ख1 के बीच नहीं है। बौद्ध-धर्म आत्मा का ऐसी स्थाई सत्ता के रूप में, जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरिवर्तित बनी रहे, अवश्य निषेध करता है; पर उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को स्वीकार करता है। बौद्ध दर्शन उपादान के अभेद के अर्थ में एकता को तो अस्वीकार करता है, लेकिन उसके स्थान पर सातत्य को स्वीकार करता है । 45 यह आत्मसन्तानों की प्रवाही - धाराओं का सातत्य ही बौद्ध दर्शन का 'आत्मा' है। यही तरल आत्मा पुनर्जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार, बौद्ध- अनात्मवाद और क्षणिकवाद भूमि को क्षति पहुँचाए बिना पुनर्जन्म की व्याख्या सम्भव है।
गीताका दृष्टिकोण
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गीता भी जैन दर्शन के समान आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म को स्वीकार करती है। श्रीकृष्ण कहते हैं, जैसे जीवात्मा को इस शरीर में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं, वैसे ही इसे अन्य शरीरों की प्राप्ति भी होती है। 16 जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को बदलकर नवीन वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही यह आत्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नए शरीर ग्रहण करता है । 47 गीताकार नैतिक-साध्य की प्राप्ति के निमित्त अनेक जन्मों की साधना को आवश्यक मानते हैं ।" इस आधार पर पुनर्जन्म का समर्थन भी किया गया है। गीता में अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं। गीता में यह भी माना गया है कि प्राणी को
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