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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सत्ता को स्वीकार किया है। वस्तुत:, नैतिक-जीवन के लिए व्यक्तित्व की स्वतन्त्र सत्ता आवश्यक है। हाफडिंग लिखते हैं कि नैतिक-जीवन व्यक्तिगत जीवन है। नैतिक-आदर्श की प्राप्ति व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में करता है। अगर व्यक्ति का या उसकी नैतिकआत्मा का परमात्मा में विलय हो जाए, तो उसके नैतिक-जीवन का अन्त हो जाएगा। नैतिक-जीवन हमेशा व्यक्तिगत होता है। उसका न प्रकृति में विलय हो सकता है और न परमात्मा में। इस प्रकार नैतिक-जीवन की व्याख्या के लिए अनेक आत्माओं (व्यक्तित्वों) की धारणा ही एक तर्कसंगत सिद्धान्त हो सकता है। 12. आत्मा के भेद
___ जैन-दर्शन अनेक आत्माओं की सत्ता को स्वीकार करता है। इतना ही नहीं, वह प्रत्येक आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर उसके भेद करता है। जैन-आगमों में विभिन्न पक्षों की अपेक्षा से आत्मा के आठ भेद किए गए हैं।
1. द्रव्यात्मा- आत्मा का तात्त्विक-स्वरूप।
2. कषायात्मा- क्रोध, मान, माया आदि कषायों या मनोवेगों से युक्त चेतना की अवस्था।
3. योगात्मा-शरीर से युक्त होने पर चेतना की कायिक, वाचिक और मानसिकक्रियाओं की अवस्था।
___ 4. उपयोगात्मा-आत्मा कीज्ञानात्मक और अनुभूत्यात्मक-शक्तियाँ। यह आत्मा का चेतनात्मक-व्यापार है।
5. ज्ञानात्मा- चेतना की विवेक और तर्क की शक्ति। 6. दर्शनात्मा- चेतना की भावात्मक-अवस्था। 7. चारित्रात्मा- चेतना की संकल्पात्मक-शक्ति। 8. वीर्यात्मा- चेतना की क्रियात्मक-शक्ति।
उपर्युक्त आठ प्रकारों में द्रव्यात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा और दर्शनात्मा-ये चार तात्त्विक-आत्मा के स्वरूप के ही द्योतक हैं, शेष चार कषायात्मा, योगात्मा, चारित्रात्मा
और वीर्यात्मा-ये चारों आत्मा के अनुभवाधारित स्वरूप के निदर्शक हैं। तात्त्विक-आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य होती है, यद्यपि उसमें ज्ञानादि की पर्यायें होती रहती हैं। अनुभवाधारित आत्माचेतना कीशरीरसे युक्त अवस्थाहै। यह परिवर्तनशील एवं विकारयुक्त होती है। आत्मा के बन्धनका प्रश्न भी इसी अनुभवाधारित आत्मा से सम्बन्धित है। विभिन्न दर्शनों में आत्म-सिद्धान्त के सन्दर्भ में जो पारस्परिक-विरोध दिखाई देता है, वह आत्मा के इन पक्षों में किसी पक्षविशेष पर बल देने के कारण होता है। भारतीय-परम्परा में बौद्धदर्शन ने आत्मा के अनुभवाधारित पक्ष पर अधिक बल दिया, जबकि सांख्य और शांकर
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