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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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अनेक जल-बिन्दुओं का समूह प्रतीत होती है। यही बात आत्मा के विषय में है। चेतनापर्यायों की विशेष दृष्टि से आत्माएँ अनेक हैं औरचेतनाद्रव्य की दृष्टि से आत्माएक है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मद्रव्य एक प्रकार का है, लेकिन उसमें अनन्त वैयक्तिक-आत्माओं की सत्ता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक वैयक्तिक-आत्मा भी अपनी परिवर्तनशील चैत्तसिक अवस्थाओं के आधार पर स्वयं भी एक स्थिर इकाई न होकर प्रवाहशील इकाई है। जैनदर्शन यह मानता है कि आत्मा का चरित्र या व्यक्तित्व परिवर्तनशील है। वह देशकालगत परिस्थितियों में बदलता रहता है, फिर भी वह वही रहता है। हमारे में भी अनेक व्यक्तित्व बनते और बिगड़ते रहते हैं, फिर भी वे हमारे ही अंग हैं, इस आधार पर हम उनके लिए उत्तरदायी बने रहते हैं। इस प्रकार, जैन-दर्शन अभेद में भेद, एकत्व में अनेकत्व की धारणा को स्थान देकर नैतिकता के लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करता है। बौद्ध-दृष्टिकोण
__ बौद्ध-दर्शन अनेक चित्तप्रवाहों को स्वीकार करता है। वह मानता है कि इस जगत् में अनेक चित्तधाराएँ हैं। प्रत्येक व्यक्तित्व एक स्वतन्त्र चित्तप्रवाह है। 'क' क, क, क.. क के रूप में एक चित्तप्रवाह है, तो 'ख' ख, ख2,ख,ख, के रूप में दूसरा चित्तप्रवाह है। जगत् का प्रत्येक प्राणी एक ऐसा ही चित्तप्रवाह है। जैन-दर्शन जिन्हें जीव की पर्यायअवस्थाओं की धारा कहता है, बौद्ध-दर्शन उसे चित्तप्रवाह कहता है। जिस प्रकार जैनदर्शन में प्रत्येक जीव अलग है, उसी प्रकार बौद्ध-दर्शन में प्रत्येक चित्तप्रवाह अलग है। जैसे बौद्ध-दर्शन के विज्ञानवाद में आलयविज्ञान है, वैसे जैन-दर्शन में आत्मद्रव्य है; यद्यपि इन सबमें रहे हुए तात्त्विक-अन्तर को विस्तृत नहीं किया जा सकता। गीता का दृष्टिकोण ___गीता में जीवात्माओं की अनेकता स्वीकृत है, लेकिन उन्हें परमात्मा का अंशमाना गया है। इस अर्थ में तात्त्विक-आत्मा को एक ही माना है। फिर भी, साधारण अर्थ में जीवात्माओं की अनेकता और उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्वों की धारणा गीता में स्वीकृत है। श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं किवास्तव मेंनतोऐसाही है किमैं किसीकाल में नहीं था, अथवातूनहीं था, अथवा येसभी राजा लोग नहींथेऔर नऐसाही है कि इससे आगेहमसब नहीं रहेंगे। इससे स्पष्टतया यह सिद्ध हो जाता है कि गीता अनेक स्वतन्त्र व्यक्तित्वों को स्वीकार करती है।
सांख्य-दार्शनिकों ने भीआत्माकीअनेकताको स्वीकार कियाहै। उन्होंने अनेकता के लिए तीन तर्क दिए हैं- (1) जन्म, मृत्यु, इन्द्रियों एवं शरीरों की विभिन्नता (2) प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ (क्रियाकलाप) और (3) व्यक्तियों के स्वभावों की भिन्नता, जो उनमें सत्त्व, रज और तमकीअसमानता के कारण होती है। भारतीय-दर्शनों में केवल अद्वैत-वेदान्त तथा चार्वाक-दर्शन को छोड़कर सभी ने प्रत्येक प्राणी की आत्मा की स्वतन्त्र
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