SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 266 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रवृत्ति और स्वभाव या नैतिक-विकास की विभिन्नता के आधार पर आत्मा की अनेकता सिद्ध की गई है। अनेकात्मवाद की नैतिककठिनाई अनेकात्मवाद नैतिक-जीवन के लिए वैयक्तिकता का प्रत्यय तो प्रस्तुत कर देता है, तथापि अनेक आत्माएँ मानने पर भी कुछ नैतिक-कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन नैतिक कठिनाइयों में प्रमुखतम यह है कि नैतिकता का समग्र प्रयास जिस अहं के विसर्जन के लिए है, उसीअहं (वैयक्तिकता) को ही यह आधारभूत बना देता है। अनेकात्मवाद में अहं कभी भी पूर्णतया विसर्जित नहीं हो सकता। इसी अहं से राग और आसक्ति का जन्म होता है। अहं तृष्णा का ही एक रूप है, 'मैं' भी बन्धन ही है। जैन-दर्शनका निष्कर्ष - जैन-दर्शन ने इस समस्या का भी अनेकान्तदृष्टि से सुन्दर हल प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार, आत्माएकभी है और अनेक भी। समवायांग और स्थानांगसूत्र में कहा गया है कि आत्मा एक है। अन्यत्र उसे अनेक (भी) कहा गया है। टीकाकारों ने इसका समाधान इस प्रकार किया कि आत्मा द्रव्यापेक्षा से एक है, पर्यायापेक्षासे अनेक; जैसे सिन्धु का जल न एक है, न अनेक, वह जलराशि की दृष्टि से एक है और जल-बिन्दुओं की दृष्टि से अनेकभी। समस्त जल-बिन्दु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए उसजलराशिसे अभिन्न ही हैं। उसी प्रकार, अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी अपने चेतना-स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं। महावीर ने इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से टीकाकारों के पहले ही कर दिया था। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'हे सोमिल! द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन-रूप दो पर्यायों की प्रधानता से मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होनेवाले आत्मप्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। तीनों कालों में बदलते रहने वाले उपयोग-स्वभाव की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।'71 इस प्रकार, महावीर जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि (Substancial view) से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर, पर्यायार्थिक-दृष्टि से एकही जीवात्मा में चेतन-पर्यायों के प्रवाह के रूपसे अनेक व्यक्तित्वों की संकल्पना को भी स्वीकार करशंकर के अद्वैतवाद और बौद्ध क्षणिक-आत्मवाद की खाई को पाटने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार, जैन-विचारक आत्माओं में गुणात्मक अन्तर नहीं मानते हैं, लेकिन विचार की दिशा में केवल सामान्य दृष्टि से काम नहीं चलता, विशेष दृष्टि का भी अपना स्थान है। सामान्य और विशेष के रूप में विचार की दो दृष्टियाँ हैं और दोनों का अपना महत्व है। महासागर की जलराशि सामान्य दृष्टि से एक है, लेकिन विशेष दृष्टि से वही जलराशि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy