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________________ आत्मा का स्वरूप और नैतिकता 265 शरीरों के कर्मों के लिए उत्तरदायी होगा। यदि यह माना जाए कि आत्मा दूसरे शरीरों में नहीं है, तो फिर वह सर्वव्यापक नहीं होगा। 2. यदि आत्मा विभु है, तो दूसरे शरीरों में होनेवाले सुख-दुःख के भोग से कैसे बच सकेगा? 3. विभु आत्मा के सिद्धान्त में कौन आत्मा किस शरीर का नियामक है, यह बताना कठिन है। वस्तुतः, नैतिक-जीवन के लिए प्रत्येक शरीर में एक आत्मा का सिद्धान्त ही संगत हो सकता है, ताकि उस शरीर के कर्मों के आधार पर उसे उत्तरदायी ठहराया जा सके। 4. आत्मा की सर्वव्यापकता का सिद्धान्त अनेकात्मवाद के साथ कथमपि संगत नहीं हो सकता। दूसरी ओर, अनेकात्मवाद के अभाव में नैतिक-जीवन की संगत व्याख्या सम्भव नहीं। यद्यपि गीता परमात्मा को विभु मानती है, लेकिन उसे जीवात्मा के रूप में सम्पूर्ण शरीर में स्थित तथाएकशरीर से दूसरे शरीर में संक्रमण करनेवालाभी मानती है। 11. आत्माएँ अनेक हैं आत्मा एक है या अनेक-यह दार्शनिक-दृष्टि से विवाद का विषय रहा है। जैनदर्शन के अनुसार आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक शरीर की आत्मा भिन्न है। यदि आत्मा को एक माना जाता है, तो नैतिक-दृष्टि से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। एकात्मवाद की नैतिक-समीक्षा __1. आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और बन्धन एक साथ होंगे। इतना ही नहीं, सभी शरीरधारियों के नैतिक-विकास एवं पतन की विभिन्न अवस्थाएँ भी युगपद् होंगी, लेकिन ऐसातो दिखता नहीं। नैतिक-स्तर भी सब प्राणियों काअलग-अलग है। यह भी माना जाता है कि अनेक व्यक्ति मुक्त हो चुके हैं और अनेक अभी बन्धन में हैं। 2. आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिक नैतिक-प्रयासों का मूल्य समाप्त हो जाएगा। यदि आत्मा एक ही है, तो व्यक्तिगत प्रयासों एवं क्रियाओं से न तो उसकी मुक्ति सम्भव होगी न वह बन्धन में ही आएगा। 3. आत्मा के एक मानने पर नैतिक-उत्तरदायित्व तथा तजनित पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। सारांश में, आत्मा को एक मानने पर वैयक्तिकता समाप्त हो जाती है और वैयक्तिकता के अभाव में नैतिक-विकास, नैतिकउत्तरदायित्व और पुरुषार्थ आदि नैतिक-प्रत्ययों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, इसीलिए विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि सुख-दुःख, जन्म-मरण, बन्धन-मुक्ति आदि के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना आवश्यक है। सांख्यकारिका में भी जन्म-मरण, इन्द्रियों की विभिन्नताओं, प्रत्येक की अलग-अलग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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